भटक रहे हैं रिश्ते

भटक रहे हैं रिश्ते दिखावे के महोत्सव में। नाराज नजरों से संदेह के गलियारों में।। सूना पड़ रहा आंगन त्योहारों के शोर में। कभी आते जो बहू-बच्चेे जो खामोशियां सज रहीं हंसते घर में।। चैन से दूर रहने वाले भाई बेचैन हैं किसी हंसी को सुन कमरों में। मेल-मिलाप, प्यार-त्याग पुरानी बातें नए में तो दूरियां चल रहीं प्रचलन में।। नन्हें कदम, नन्हीं सी बातें मिलकर नहाते सभी भाई एक ही सरोवर में। वक्त ने मजबूत को मजबूर कर दिया अब ओझल होती नजरें शिकायतों के धूल में ।। बेझिझक जिंदगी जाने कहां खो गई लबों पर बेबसी दिखती है हर बात में। नाराजगी से सज रहा हर दिल खुशियां भटक गईं हैं मानों अंधेरे कोने में। ।।