दिन के पीठ पीछे चलती एक परछाई है


































दिन के पीठ पीछे चलती एक परछाई है
स्याह जिंदगी की मानों वही कहानी है।
हमारी मायूसी के पीछे कोई तो खड़ा है
सामने शायद मुस्कुराता वही अपना है।
हश्र की चिंता में मौन को हम चुनते रहे
हंसी के तोहफे में जख्म किसी ने तो कुरेदा है।
बड़ी तसल्ली से खिदमत करते रहे खुशियों का
मेरी हंसी को हिज्र तक किसी ने तो बिखराया है।
हर तरफ मेरे पसरे अजीज ही तो हैं
किससे कहूं कि घर में आग किसने लगाया है।  
चुप हूं, खौफजदा होकर
आखिर इश्क को मैंने इन्हीं पे लुटाया है।
अच्छा है चंद नुकसान मुकद्दर को दिए
कम से कम अपनों को हंसते तो हमने पाया है।।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पतझड़ सा मैं बिखर जाऊंगा

सही-गलत part 1

प्रेस वहीं जो सिलवटों को प्‍यार से दूर करे