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एक साथी बहुत जरूरी है

  अक्सर मैं आॅफिस में यह सुनता रहा हूं कि काम करो, बातें न करो। यह बात वास्तव में सही •ाी है। काम के वक्त यदि हम बात करते हैं तो हमारा दिमाग उन बातों से उत्पन्न विचारों में बहक जाता है और कार्य प्र•ाावित होता है। लेकिन कार्य अवस्था की अवधि यदि अधिक समय की है तो ऐसे में हम एक ऐसा सहयोगी या साथी खोजते हैं, जो हमें कार्य से परे कुछ ऐसी बातोें से एक स्वस्थ्य माहौल बनाए। मुझे याद है कि बचपन के दिनों में जब •ाी हम किसी रिश्तेदारी या खेत-खलिहान अथवा बगीचा जाते तो पिता जी यही कहते कि किसी को साथ ले लो। वे कहीं हमें •ोजते तो मेरे साथ मेरे छोटे •ााई या गांव के किसी हमउम्र बच्चे को लगा देते। उस वक्त हमें क•ाी इस बात का अहसास नहीं हुआ कि पिता जी ऐसा क्यों करते थे? मुझे याद है कि खेतों में धान की रोपाई या फसल की कटाई के वक्त महिला और पुरुषों का झुंड गीत गाते हुए अपने कार्य को •ोर की लालिमा से सूरज के डूबने तक बहुत तनमयता के साथ करते थे। उनके काम की गति और लोग गीतों का क्रम बहुत ही आकर्षक होता था। फिर •ाी मुझे यह न समझ आया कि आखिर काम के वक्त वो बातें, कहावतें एवं गायन-वादन क्यों किया करते थे...

उनकी वो बेचारगी...

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जिंदगी को जाने क्या मंजूर है, कोई नहीं जानता। कल क्या होगा, यह न जानते हुए आज को जीते हैं और अपने और अपनों से वादे करते हैं। वाकई में इंसान बहुत साहसी है। खुद के साथ आज क्या होगा इसके बारे में पता नहीं और कल की खुशियों का वादा कर देते हैं। लेकिन कुछ इंसान इस दुनियां में ऐसे •ाी हैं जो खुद को एक नियती के तहत व्यवहारित कर दूसरों को सौ•ााग्य की दुआ करते हैं। दूसरों को दुआ देकर अपनी खुशी को जीने वाली कुछ महिलाएं मुझे अक्सर •ोपाल के टीटी नगर थाने के सामने दिख जाती हैं। मैं काफी समय से •ोपाल में रह रहा हूं, लग•ाग छह से सात साल हो गए। यहां पर एक बाजार है न्यूं मार्केट। वहां पर स्थित टीटी नगर थाने के मंदिर में मैं पुजारी हूं। मैं जब •ाी मंदिर से निकलता हूं, मुझे एक लड़की लोगों से पैसा मांगती नजर आती है। उसकी वो करूण आवाज, बाबू जी! कुछ पैसे दे दो। और उसके चेहरे पर दिखती वो बेचारगी। वास्तव में पत्थर दिलों पर •ाी जादू छोड़ जाती हैं। असल में इस मायावी संसार में बहुत सी मायावी •ाावनाएं हैं। इनमें यह •ाी एक पेशेगत मायावी •ाावना ही है। इस क्षेत्र में इस तरह की ढेरों लड़कियां हैं, जो अ...

ये कहां आ गए हम

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बचपन में हमें ‘नैतिक शिक्षा’ विषय के तौर पर पढ़ाया जाता है, लेकिन स्नातक के आगाज के साथ ही इस शिक्षा का अंत हो जाता है। शायद शिक्षा विदों की यह धारणा है कि अब इस शिक्षा के तहत पढ़ाए गए ज्ञान के अनुप्रयोग का वक्त आ गया है। ऐसे में समाज स्नातक के विद्यार्थियों से यह आशा रखने लगती है कि वह भाषा, बोली और व्वहार में अपने नैतिक ज्ञान को व्यवहारिक रूप देकर समाज के विकास में सहयोग प्रदान करेगा। लेकिन कष्ट तब होता है जब प्रोढ़ उम्र के व्यक्ति या कर्मचारी दायित्वपूर्ण एवं बौद्धिक जगहों पर आसीन हो इन गुणों से परे व्यवहार करते हैं और अपने को अहम की प्रतिमूर्ति के तौर पर अवस्थित करते हुए अन्य को निम्न समझने का भ्रम पाल लेते हैं। ऐसा ही व्यहार अक्सर हम अपने आस-पास में भी देखते हैं। जैसे मेरे एक सीनियर ने मेरे कार्य पर प्रश्न चिन्ह लगाया। ऐसे में मुझे लगता है कि वह मेरे कार्य पर नहीं, बल्कि संस्था के प्रबंधक और प्रबंधकीय स्थिति पर ही सवाल खड़े कर रहे थे। एक संस्था में हर व्यक्ति का अपना स्वतंत्र दिखने वाला कार्य होता है, जो एक दूसरे के सहयोग और समंजस्य से पूर्ण होता है। दूसरी बात कि कई...

प्रेम का इगो इफेक्ट

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कुछ दिनों पहले की बात है। मैं सरिता विहार से लक्ष्मी नगर मेट्रों से जा रहा था। रास्तें में मुझे एम हमारे पुराने मित्र राहुल जी मिल गए। उन्होंने देखते ही मुझे गले लगा लिया। मैं • ाी बहुत खुश हुआ उनसे इतने दिनों बाद मिलकर। बहुत दिनों के बाद मिले थे , सो उनकी जुबान पर ढेरों प्रश्न थे। मेरा हाल - चाल लेने के बाद उन्होंने मेरी पुरानी जिंदगी से जुड़ा एक प्रश्न कर दिया। और आदित्य यह बताओं भोपाल वाली का क्या हाल है ? दरअसल मैंने • ोपाल से परास्रातक की पढ़ाई की है। उस दौरान एक महिला मित्र से मेरे अच्छे संबंध रहे। जो मेरी जुनियर थी। और सत्य कहें तो हम एक दुसरे से प्रेम करते थे। मैं नहीं जानता वो कैसी हैं और क्या कर रही हैं ? ऐसे में मैंने सिर्फ ठीक हैं कह दिया। यहां तक तो सब ठीक ठाक रहा। अचानक उन्होंने अगला प्रश्न दाग दिया। सुना है आपका उसने आपको छोड़ दिया। और जैसे ही यह प्रश्न मेरे कर्ण पटल से टकराए मेरे दिलों दिमाग में एक ...