बलूची विचार एक फतवा

जिंदगी की राहों में सिर्फ कंकड़ बिछे होते तो शायद हम उसका कोई समाधान निकाल लेते। लेकिन इन कंकड़ों के बीच जो कांटे और शीशे के टुकड़े छिपे पड़े हैं वे सिर्फ लहूलुहान करते हैं। मैं नहीं जानता का जीवन क्या है और इसकी व्यवहारिकता क्या है? मेरे अपनों ने जो भी कुछ नीयम बताया वही जीवन का हिस्सा मान मैं चलता रहा। कभी स्वविवेक का प्रयोग नहीं किया, हां कभी प्रयोग करने की इच्छा भी व्यक्त की तो उसे धृष्ठता में गुणित कर दिया गया। जीवन जीने के दौरान ऐसा लगा मानों मेरे लिए सारे रास्ते पहले से ही तय था। मेरा अपना न कोई वजूद और न ही कोई चरीत्रव्यवहार ही है। फिर भी मैंने एक बार न चाहते हुए एक गलती कर दी। समाज द्वारा दिखावटी सोच और व्यवहार को दरकिनार कर किताबों, ग्रंथों और दिवारों तथा जुबान निश्चित हुई नैतिक व्यवहार को अपने चरित्र पर चादर की तरह ओढ़ लिया। और देर न लगी चारों तरफ हाहाकार मच गई। मैंने वह कार्य कर दिया, जिसमें कइयों की स्वीकृति आवश्यक थी, ऐसा मुझे जताया गया। तब मालूम चला की भावनाएं अपनों की गुलाम हैं। ऐसे में जिन्हें मैंने अपने रक्त और जीवन से भी...