बलूची विचार एक फतवा
जिंदगी की राहों में सिर्फ कंकड़ बिछे होते तो शायद हम उसका कोई समाधान निकाल लेते। लेकिन इन कंकड़ों के बीच जो कांटे और शीशे के टुकड़े छिपे पड़े हैं वे सिर्फ लहूलुहान करते हैं। मैं नहीं जानता का जीवन क्या है और इसकी व्यवहारिकता क्या है? मेरे अपनों ने जो भी कुछ नीयम बताया वही जीवन का हिस्सा मान मैं चलता रहा। कभी स्वविवेक का प्रयोग नहीं किया, हां कभी प्रयोग करने की इच्छा भी व्यक्त की तो उसे धृष्ठता में गुणित कर दिया गया। जीवन जीने के दौरान ऐसा लगा मानों मेरे लिए सारे रास्ते पहले से ही तय था। मेरा अपना न कोई वजूद और न ही कोई चरीत्रव्यवहार ही है।
फिर भी मैंने एक बार न चाहते हुए एक गलती कर दी। समाज द्वारा दिखावटी सोच और व्यवहार को दरकिनार कर किताबों, ग्रंथों और दिवारों तथा जुबान निश्चित हुई नैतिक व्यवहार को अपने चरित्र पर चादर की तरह ओढ़ लिया। और देर न लगी चारों तरफ हाहाकार मच गई। मैंने वह कार्य कर दिया, जिसमें कइयों की स्वीकृति आवश्यक थी, ऐसा मुझे जताया गया। तब मालूम चला की भावनाएं अपनों की गुलाम हैं। ऐसे में जिन्हें मैंने अपने रक्त और जीवन से भी ज्यादा चाहत दी, वही मेरे दिमागी हालत और चरित्र को घिनौना स्वरूप देने लगे। मुझे उसी प्रकार अपने से दूर कर दिया, जैसे आॅपरेशन के दौरान कैंसर से प्रभावित शरीर को काटकर अलग कर दिया जाता है।
सबसे पहले मैं यह नहीं समझ पाया कि हम विचार किससे व्यक्त करते हैं। अपनों से, या जिन्हें हम सिर्फ जानते हैं अथवा वो जो हमारे सबसे अजीज हैं। दूसरी बात यहां मैं यह समझ नहीं पाया कि विचार या व्यवहार को क्या छिपाकर ही अच्छा बनना चाहिए अथवा अपनों के साथ उसको रखकर उसे बल दें अथवा खत्म करने की प्रक्रिया अपनानी चाहिए। लेकिन कहीं वो अपने हमारी बुराइयों को जानकर हमें छोड़ दें तो फिर व्यवहार में वो भी अपनों के साथ चोरी जरूरी हो जाती है। जो निश्चित तौर पर गलत होगा और बता दिए तो पागल और दुष्चरीत्र घोषित हो जाते हैं। ऐसा क्यों?
मालूम नहीं प्रेम का स्वरूप कैसा होता है और इसको कैसे व्यवहार से जोड़ा जाता है। लेकिन जहां तक मेरा अनुभव रहा यह स्वत: उत्पन्न होने वाला भाव है। जो किसी अपने जो आपका सबसे अजीज होता है उसके प्रति उद्विपित होता है। यहां मैं सिर्फ एक जगह भटक गया कि यह भाव जिसके प्रति जन्म लिया है उसे बताना गलत होता है अथवा सही। यदि हम अपने परिवार के सदस्य अपने माता-पिता, भाई-बहन और घर के बच्चों के प्रति स्थान और भीड़ को दरकिनार कर अपनी भावनाओं को शब्दों और व्यवहार के तौर पर इंगित करते हैं अथवा अभिव्यक्त करते हैं तो एक अपने सबसे अजीज मित्र को हम उतनी ही स्वछंदता से अपने प्रेम व भावनओं को क्यों नहीं अभिव्यक्त कर सकते?
मैं नहीं जानता कि रिश्तों को जोड़ने और उसे व्यवहारित करने के लिए कौन-कौन सी नैतिक विचारधाराएं इस समाज पर हावी हैं। मैंने जब भी देखा हर आदमी अपने फायदे को ध्यान में रख नैतिकता का वरण करता है। ऐसे में उसे वहीं विचार या सूत्र जीवन में सही लगते हैं जिससे उसे तत्काल फायदा नजर आता है। लेकिन एक जगह मैंने इस सोच की अनुपस्थिति देखी तो वह था प्रेम। यह प्रेम परिवार, समाज और हर उस संस्थागत जगह से दूर होता है, जो प्रेम को रिश्तों के द्वण्द्व में बांधकर अपनी •ाावनाओं को जताते हैं। यह प्रेम हमेंशा सभी सोच, लाभ -हानि तथा मानसिक विचार लीला से दूर जन्म लेती है और इसका मूल विश्वास और समर्पण पर आधारित होता है।
यहां मैं एक प्रश्न का उत्तर खोज रहा हूं कि क्यों कोई व्यक्ति अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करता है तो उसे ईर्ष्या का भागी होना पड़ता है। जीवन में हम हमेंशा अकेले चलते हैं और जीवन के हर हिस्से को अकेले ही जीते हैं। क्योंकि आपकी भावनाओं को न तो आपके मां-पिता और न ही पति अथव पत्नी या मित्र-बंधु समझ सकते हैं और न ही उसमें बटवारा कर सकते हैं। कई मित्रों और इंसानों के साथ आपके दिल में किस प्रकार की भावना है यह सिर्फ आप ही समझते हैं। ऐसे में जब उससे रिश्ते का निर्णय करना हो तो कोई अन्य सलाह दे यह कैसे उत्तम हो सकता है। यहां तो वह या तो गलत विचार या सलाह देगा अथव सिर्फ कोई फतवानुमा घोषणा कर सकता है। यहां एक चीज और मुझे भटका रही है कि हम किसी को यदि सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं, तो क्या उसकी अभिव्यक्ति पाप या अपराध है। दूसरा प्रेम क्या किसी गैर से होता है अथवा किसी अपने से।
* क्रमशः
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