पश्चिमी सभ्यता को दोष मत दो
आर.एस.एस. के सरसंघचालक मोहन भागवत ने बलात्कार एवं महिलाओं के साथ हो
रहे भेदभाव पर बयान दिया कि यह सबकुछ पश्चिमी सभ्यता के कारण हो रहा है।
विहिप के नेता अशोक सिंघल सहित आशाराम बापू आदि ने ऐसा ही बयान दिया।
बयान देने से पहले इन्हें सोचना तो चाहिए कि हमारी सभ्यता में कुछ न कुछ
खामी जरूर है, तभी तो हमारे लोग दूसरी सभ्यता से प्रभावित हो जाते हैं।
यूरोप एवं अमेरिका का समाज तो नहीं कोसता कि उनके लोग हिन्दू सभ्यता से
बिगड़ रहे हैं, जबकि ऐसी संभावना पूरी-पूरी है, क्योंकि हमारे लोग बड़ी
संख्या में इन देशों में रहते हैं। अमेरिका एवं यूरोप के लोग बहुत कम
संख्या में भारत में हैं और वे व्यापार या सरकारी जिम्मेदारी पूरा होते
ही अपने देश वापिस लौट जाते हैं न कि यहां पर रच और बस जाएं। बेहतर होता
कि ये लोग अपनी सभ्यता की खामियों को स्वीकार करते हुए दूर करते।
हमारी सभ्यता का आधार जातीय व्यवस्था है और इस व्यवस्था के शिकार जितना
दलित, आदिवासी एवं पिछड़े हैं, उतना ही महिलाएं। हजारों वर्षों से सवर्ण
समाज इस व्यवस्था को सर्वोत्तम कहते थकता नहीं और दूसरों को कमतर। यूरोप
एवं अमेरिका के लोग शायद ही भारतीय सभ्यता को बुरा कहते हैं, लेकिन हम
तनिक सा भी मौका नहीं छोड़ते, उनके रहन-सहन और तौर-तरीके को गलत बताने
में। मुस्लिम समाज के लोग तो ज्यादा ही आलोचना पश्चिमी सभ्यता की करते
हैं। तमाम मुस्लिम नेताओं के द्वारा बिना वजह पब्लिक सभाओं से पश्चिम
सभ्यता पर हमला बोलते हुए कहते हैं कि वहां पर औरतें अर्द्धनग्न रहती
हैं, तलाक और गर्भपात भारी पैमाने पर होता है। पश्चिम के तमाम देशों को
देखने और समझने का मौका मिला लेकिन कभी नहीं देखा हिन्दू और मुस्लिम
सभ्यता की आलोचना करते हुए।
हमारे दो प्रमुख महाकाव्य हैं - एक है गीता एवं दूसरा रामचरित्मानस।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम की लड़ाई रावण से सीता को लेकर हुई। सीता को पहले
लक्ष्मण रेखा पार न करने के लिए कहा गया था लेकिन वे गलती कर गयीं और
रावण उन्हें उठा ले गया। यह प्रकरण भी औरत को कमतर दिखाता है। इन दोनो
में युद्ध होता है और रावण के हारने के बाद सीता पुनः वापिस आती हैं तो
उनकी अग्नि परीक्षा ली जाती है कि कहीं उन्होंने अपनी इज्जत तो नहीं गंवा
दिया। पुरुष को अग्निपरीक्षा देने की जरूरत है ही नहीं, जैसे कि उसकी
इज्जत हो ही न। यहां स्पष्ट हो जाता है कि औरत एक वस्तु है, भोग्या है और
उसका दर्जा पुरुष से कम है। बात यहीं समाप्त नहीं होती बल्कि तब स्थिति
और दर्दनाक बन जाती है जब पड़ोसी के कहने पर राम सीता को घर से निकाल देते
हैं। राम को सीता के चरित्र पर शक हुआ तभी तो उन्होंने घर निकाला किया।
सीता का इतना भी अधिकार नहीं होता है कि उनको रहने के लिए व्यवस्था कर दी
जाए बल्कि जंगल में छोड़वा दिया जाता है। आज का कानून ऐसा करने की इजाजत
नहीं देता है और जब संबंध विच्छेद की स्थिति आती भी है तो महिला को
जीवन-यापन के लिए पुरुष को सहायता देनी पड़ती है। जब हमारी यही सभ्यता है
तो महिलाएं पश्चिम सभ्यता से प्रभावित तो होंगी ही क्योंकि वहां पर
आजादी, सम्मान एवं आत्मनिर्भरता ज्यादा है। यहीं पर अपने गिरेबान में
झांककर देखने की बहुत ही जरूरत है कि उन सड़ी-गली परंपराओं व मान्यताओं को
दफन किया जाए, जिससे महिलाएं कमतर मानी जाती हैं, बजाय कि दोष किसी और पर
डाल देना। अतीत में पश्चिम के देशों में भी भेदभाव रहे हैं, लेकिन
उन्होंने तेजी से उन्हें दूर करने की भी कवायद की। ग्रीक की सभ्यता का
विकास किस तरह से आगे बढ़ता है, उसे समझना जरूरी है। सुकरात ने जो दर्शन
दिये उनके शिष्य प्लेटो ने उतना ही माना जितना उनको मानव के हित में या
तर्कसंगत लगा। अर्थात् सभ्यता को आगे बढ़ाने का काम किया। अरस्तू प्लेटो
के सिद्धांतों व दर्शन से बहुत प्रभावित होते हुए भी उन्हीं बातों को
माना जो उन्हें तर्कसंगत लगी। इस तरह से यथास्थितिवाद की जकड़न से समाज
मुक्त होता रहा और आज जो पश्चिम की सभ्यता है, वह ऐसी ही परंपराओं एवं
रीतिरिवाजों की बुनियाद पर बनी है। हमारे यहां चाहे जितनी अच्छी एवं
प्रगतिशील बात हो लेकिन अंत में यह शायद कोई ही न कहता हो कि पुराने
जमाने की बात ही क्या है? अर्थात् पुरानी परंपरा को ही सर्वोच्च माना
जाता है। इस तरह से यहीं पर हम मार खाते हैं और पश्चिमी सभ्यता के सामने
व्यावहारिकता में पीछे हो जाते हैं। दुनिया में हमसे ज्यादा मियां-मिट्ठू
कोई समाज नहीं है, जो यह कहते हुए थकता नहीं कि जो हमारा धर्म, सोच और
रहन-सहन है, उसका कोई मुकाबला है ही नहीं। आज जब महिलाएं संविधान में
प्रदत्त अधिकारों के अनुसार जीना चाहती हैं तो उन्हें बर्बस पश्चिम की
सभ्यता से प्रभावित होना पड़ता है, क्योंकि वहां मानवाधिकार, समानता,
आत्मनिर्भरता, आजादी ज्यादा है। समानता एवं सम्मान की भूख जब जग गयी है
तो रहना-सहना भी बदलता है और वह पश्चिम सभ्यता के तमाम मूल्यों से अपने
आप मेल खा जाता है। हमें अपने आपको परिवर्तित करने से पश्चिमी देशों के
लोगों ने रोका नहीं। जो परिवर्तन वहां हुआ यदि उसे हम अपने परिवेश के
अनुसार ढाल लेते तो आज पश्चिम सभ्यता से प्रभावित होने की जरूरत ही न
होती और हो सकता है कि दूसरी सभ्यताओं को हम कुछ दे सकते। अभी भी
रामचरितमानस के उस अंश की सार्वजनिक रूप से निंदा नहीं की गयी जो यह कहता
हो कि ढोल, गवांर, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी। इसका आशय है
कि महिला मारने से ही काम करती है और वह पशु समान है। महाभारत के उस अंश
की भी निंदा नहीं की गयी, जब पांडव जुआ खेलते-खेलते सबकुछ हार जाते हैं
और दांव लगाने के लिए उनके पास कुछ नहीं रह जाता तो द्रौपदी को लगा देते
हैं और कौरव जीत जाते हैं। क्या आज कोई व्यक्ति अपनी औरत को जुआ में
खेलने की हिम्मत कर सकता है? जिन्होंने स्वयं द्रौपदी को सम्मान नहीं
दिया, उसे वस्तु माना और धर्मराज कहलाए जबकि कौरवों का दोष कम है, लेकिन
चित्रित इस तरह से किया गया कि दुष्ट वहीं हैं, बल्कि कौरवों का पक्ष
बेहतर है और अगर वे द्रौपदी का चीरहरण भी करते हैं तो जिम्मेदार कौन है?
पश्चिम के तमाम देशों मेें विभिन्न क्षेत्रों में क्रांति हुई है, लेकिन
हमारे यहां नहीं हो सकी। कबीर जैसे संतों ने कोशिश तो जरूर की लेकिन वह
व्यावहारिक पटल पर नहीं पहुंच सका। ज्योतिबाफुले ने महिलाओं की आजादी और
शिक्षा की मिसाल स्थापित करके शुरुआत तो की लेकिन समाज की जड़ता नहीं
टूटी। अम्बेडकरवादी आंदोलन जरूर जातिवादी और मनुवादी व्यवस्था को चुनौती
देता है, लेकिन अभी उसे बड़ी यात्रा करनी पड़ेगी। व्यक्ति को समानता,
सम्मान, स्वतंत्रता एवं आत्मनिर्भरता आदि प्राप्त करने में जहां से भी
सहयोग मिलता है, वहां से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। समय रहते हुए
यदि हम सड़ी-गली परंपराओं को तोड़ते तो जीवन जीने के लिए ये आवश्यकताएं हम
अपने यहां से ही पूरा कर लेते तो पश्चिम के देश से प्रभावित होने की
जरूरत ही नहीं थी। चीन हमसे कम रूढ़िवादी नहीं था लेकिन वहां पर
सांस्कृतिक क्रांति सत्ता के द्वारा की गयी। प्रतिक्रियावादी मूल्यों को
डंडे की जोर से भी खत्म किया गया। यदि वे अपने यहां समय के अनुसार
सांस्कृतिक क्रांति न किये होते तो जो भी सभ्यता प्रगतिशील एवं
मानवतावादी होती, उनके समाज को प्रभावित कर देती। हमें आज़ादी प्राप्त
किये 65 वर्ष हो गया और सरकारों ने तमाम योजनाएं बनायीं, लेकिन जाति
तोड़ने एवं पुरुषवादी सोच को खत्म करने का प्रयास नहीं किया गया। यह कार्य
समाज के कठमुल्लों पर छोड़ दिया गया। भला वे क्यों सामाजिक परिवर्तन करते?
सरकार का हस्तक्षेप होना चाहिए था, लेकिन वोटबैंक खराब न हो, इसलिए
अधिकतर नेता परिवर्तन करने के लिए आंदोलन किए ही नहीं। चाहे सामाजिक
नेतृत्व हो या राजनैतिक, ज्यादातर लोग खुद ही रूढ़िवादी रहे और पुरानी
भेदभाव एवं असमानता वाली सोच से ऊपर नहीं उठ सके।
संचार की दुनिया में बड़ी क्रांति आयी है, जिसकी वजह से स्वतः महिलाओं ने
अपने तरह से बराबरी और रहन-सहन के तरीके अपनाए। जींस एवं शर्ट भी पहन
लिया। उच्च शिक्षा में भी भागीदारी ली। राजनैतिक नेतृत्व भी इनके हाथ में
आया। टेलीफोन, मोबाइल एवं तमाम आधुनिक वस्तुओं का धडल्ले से इस्तेमाल
किया और बाहर से दिखीं कि अब ये पुरुष के समान पहुंच रही हैं लेकिन सोच
के स्तर पर बदलाव बहुत कम हुआ। ये औरतें भी उन्हीं कर्मकांडों एवं
मान्यताओं को अपनाया जिससे पुरुष के मुकाबले में कमतर तो होना ही है। पति
को परमेश्वर मानना और उसकी दीर्घायु के लिए करवाचौथ का व्रत रखना, क्या
पुरुष ने भी महिलाओं के लिए ऐसी भावनाएं दिखायी? क्या इन महिलाओं ने
उपरोक्त में धार्मिक एवं सामाजिक स्तर पर किये गए अतीत के भेदभाव का
बहिष्कार किया? मर्जी या गैरमर्जी से यदि यदि इनका सेक्स संबंध हुआ और वह
गैरकानूनी है तो इन्होंने पूरी इज्जत ही खो दी, जैसे कि सारी इज्जत इनकी
इसी में हो और बुद्धि, शिक्षा, ईमानदारी, वफादारी आदि का नंबर शून्य।
बलात्कारी से ज्यादा पीड़ा तो जीवनभर समाज एवं मीडिया देते हैं, जब वे
कहते हैं कि उसकी इज्जत तार-तार हो गयी और वह चरित्रहीन है। यदि हम अपने
समाज को स्वस्थ रखना चाहते हैं तो दोष दूसरों को देने के बजाय अपनी
सभ्यता की कमियों को दूर करना पड़ेगा। सख्त कानून भी समाज को विकृत होने
से रोक नहीं पाएगा।
यह कहना बिल्कुल गलत है है कि गड़बड़ी इंडिया में हो रही है भारत में नहीं।
जोधपुर में दो गांव ऐसे हैं, जहां 100 वर्ष के बाद बारात आयी, क्योंकि
लड़कियां पैदा होते ही मार दी जाती थी। जिस भारत को मोहन भागवत जी आदर्श
मान रहे हैं और इंडिया को विकृत, वे दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़ों की
पीड़ा को नहीं जानते। राजस्थान में तमाम ऐसे गांव हैं, जहां पर दबंग कमजोर
वर्ग की औरतों के साथ जबरन सेक्स करते हैं लेकिन बात बाहर इसलिए नहीं आती
क्योंकि एक तो वहां पर इलैक्ट्रानिक चैनल की पहुंच नहीं है और दूसरा ऐसे
तो पहले से ही चला आ रहा है। इंडिया की औरतों को कई गुना ज्यादा
मान-सम्मान, भागीदारी, बराबरी मिल चुकी है, जबकि भारत की नहीं।
- डॉ0 उदित राज
रहे भेदभाव पर बयान दिया कि यह सबकुछ पश्चिमी सभ्यता के कारण हो रहा है।
विहिप के नेता अशोक सिंघल सहित आशाराम बापू आदि ने ऐसा ही बयान दिया।
बयान देने से पहले इन्हें सोचना तो चाहिए कि हमारी सभ्यता में कुछ न कुछ
खामी जरूर है, तभी तो हमारे लोग दूसरी सभ्यता से प्रभावित हो जाते हैं।
यूरोप एवं अमेरिका का समाज तो नहीं कोसता कि उनके लोग हिन्दू सभ्यता से
बिगड़ रहे हैं, जबकि ऐसी संभावना पूरी-पूरी है, क्योंकि हमारे लोग बड़ी
संख्या में इन देशों में रहते हैं। अमेरिका एवं यूरोप के लोग बहुत कम
संख्या में भारत में हैं और वे व्यापार या सरकारी जिम्मेदारी पूरा होते
ही अपने देश वापिस लौट जाते हैं न कि यहां पर रच और बस जाएं। बेहतर होता
कि ये लोग अपनी सभ्यता की खामियों को स्वीकार करते हुए दूर करते।
हमारी सभ्यता का आधार जातीय व्यवस्था है और इस व्यवस्था के शिकार जितना
दलित, आदिवासी एवं पिछड़े हैं, उतना ही महिलाएं। हजारों वर्षों से सवर्ण
समाज इस व्यवस्था को सर्वोत्तम कहते थकता नहीं और दूसरों को कमतर। यूरोप
एवं अमेरिका के लोग शायद ही भारतीय सभ्यता को बुरा कहते हैं, लेकिन हम
तनिक सा भी मौका नहीं छोड़ते, उनके रहन-सहन और तौर-तरीके को गलत बताने
में। मुस्लिम समाज के लोग तो ज्यादा ही आलोचना पश्चिमी सभ्यता की करते
हैं। तमाम मुस्लिम नेताओं के द्वारा बिना वजह पब्लिक सभाओं से पश्चिम
सभ्यता पर हमला बोलते हुए कहते हैं कि वहां पर औरतें अर्द्धनग्न रहती
हैं, तलाक और गर्भपात भारी पैमाने पर होता है। पश्चिम के तमाम देशों को
देखने और समझने का मौका मिला लेकिन कभी नहीं देखा हिन्दू और मुस्लिम
सभ्यता की आलोचना करते हुए।
हमारे दो प्रमुख महाकाव्य हैं - एक है गीता एवं दूसरा रामचरित्मानस।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम की लड़ाई रावण से सीता को लेकर हुई। सीता को पहले
लक्ष्मण रेखा पार न करने के लिए कहा गया था लेकिन वे गलती कर गयीं और
रावण उन्हें उठा ले गया। यह प्रकरण भी औरत को कमतर दिखाता है। इन दोनो
में युद्ध होता है और रावण के हारने के बाद सीता पुनः वापिस आती हैं तो
उनकी अग्नि परीक्षा ली जाती है कि कहीं उन्होंने अपनी इज्जत तो नहीं गंवा
दिया। पुरुष को अग्निपरीक्षा देने की जरूरत है ही नहीं, जैसे कि उसकी
इज्जत हो ही न। यहां स्पष्ट हो जाता है कि औरत एक वस्तु है, भोग्या है और
उसका दर्जा पुरुष से कम है। बात यहीं समाप्त नहीं होती बल्कि तब स्थिति
और दर्दनाक बन जाती है जब पड़ोसी के कहने पर राम सीता को घर से निकाल देते
हैं। राम को सीता के चरित्र पर शक हुआ तभी तो उन्होंने घर निकाला किया।
सीता का इतना भी अधिकार नहीं होता है कि उनको रहने के लिए व्यवस्था कर दी
जाए बल्कि जंगल में छोड़वा दिया जाता है। आज का कानून ऐसा करने की इजाजत
नहीं देता है और जब संबंध विच्छेद की स्थिति आती भी है तो महिला को
जीवन-यापन के लिए पुरुष को सहायता देनी पड़ती है। जब हमारी यही सभ्यता है
तो महिलाएं पश्चिम सभ्यता से प्रभावित तो होंगी ही क्योंकि वहां पर
आजादी, सम्मान एवं आत्मनिर्भरता ज्यादा है। यहीं पर अपने गिरेबान में
झांककर देखने की बहुत ही जरूरत है कि उन सड़ी-गली परंपराओं व मान्यताओं को
दफन किया जाए, जिससे महिलाएं कमतर मानी जाती हैं, बजाय कि दोष किसी और पर
डाल देना। अतीत में पश्चिम के देशों में भी भेदभाव रहे हैं, लेकिन
उन्होंने तेजी से उन्हें दूर करने की भी कवायद की। ग्रीक की सभ्यता का
विकास किस तरह से आगे बढ़ता है, उसे समझना जरूरी है। सुकरात ने जो दर्शन
दिये उनके शिष्य प्लेटो ने उतना ही माना जितना उनको मानव के हित में या
तर्कसंगत लगा। अर्थात् सभ्यता को आगे बढ़ाने का काम किया। अरस्तू प्लेटो
के सिद्धांतों व दर्शन से बहुत प्रभावित होते हुए भी उन्हीं बातों को
माना जो उन्हें तर्कसंगत लगी। इस तरह से यथास्थितिवाद की जकड़न से समाज
मुक्त होता रहा और आज जो पश्चिम की सभ्यता है, वह ऐसी ही परंपराओं एवं
रीतिरिवाजों की बुनियाद पर बनी है। हमारे यहां चाहे जितनी अच्छी एवं
प्रगतिशील बात हो लेकिन अंत में यह शायद कोई ही न कहता हो कि पुराने
जमाने की बात ही क्या है? अर्थात् पुरानी परंपरा को ही सर्वोच्च माना
जाता है। इस तरह से यहीं पर हम मार खाते हैं और पश्चिमी सभ्यता के सामने
व्यावहारिकता में पीछे हो जाते हैं। दुनिया में हमसे ज्यादा मियां-मिट्ठू
कोई समाज नहीं है, जो यह कहते हुए थकता नहीं कि जो हमारा धर्म, सोच और
रहन-सहन है, उसका कोई मुकाबला है ही नहीं। आज जब महिलाएं संविधान में
प्रदत्त अधिकारों के अनुसार जीना चाहती हैं तो उन्हें बर्बस पश्चिम की
सभ्यता से प्रभावित होना पड़ता है, क्योंकि वहां मानवाधिकार, समानता,
आत्मनिर्भरता, आजादी ज्यादा है। समानता एवं सम्मान की भूख जब जग गयी है
तो रहना-सहना भी बदलता है और वह पश्चिम सभ्यता के तमाम मूल्यों से अपने
आप मेल खा जाता है। हमें अपने आपको परिवर्तित करने से पश्चिमी देशों के
लोगों ने रोका नहीं। जो परिवर्तन वहां हुआ यदि उसे हम अपने परिवेश के
अनुसार ढाल लेते तो आज पश्चिम सभ्यता से प्रभावित होने की जरूरत ही न
होती और हो सकता है कि दूसरी सभ्यताओं को हम कुछ दे सकते। अभी भी
रामचरितमानस के उस अंश की सार्वजनिक रूप से निंदा नहीं की गयी जो यह कहता
हो कि ढोल, गवांर, शूद्र, पशु, नारी ये सब ताड़न के अधिकारी। इसका आशय है
कि महिला मारने से ही काम करती है और वह पशु समान है। महाभारत के उस अंश
की भी निंदा नहीं की गयी, जब पांडव जुआ खेलते-खेलते सबकुछ हार जाते हैं
और दांव लगाने के लिए उनके पास कुछ नहीं रह जाता तो द्रौपदी को लगा देते
हैं और कौरव जीत जाते हैं। क्या आज कोई व्यक्ति अपनी औरत को जुआ में
खेलने की हिम्मत कर सकता है? जिन्होंने स्वयं द्रौपदी को सम्मान नहीं
दिया, उसे वस्तु माना और धर्मराज कहलाए जबकि कौरवों का दोष कम है, लेकिन
चित्रित इस तरह से किया गया कि दुष्ट वहीं हैं, बल्कि कौरवों का पक्ष
बेहतर है और अगर वे द्रौपदी का चीरहरण भी करते हैं तो जिम्मेदार कौन है?
पश्चिम के तमाम देशों मेें विभिन्न क्षेत्रों में क्रांति हुई है, लेकिन
हमारे यहां नहीं हो सकी। कबीर जैसे संतों ने कोशिश तो जरूर की लेकिन वह
व्यावहारिक पटल पर नहीं पहुंच सका। ज्योतिबाफुले ने महिलाओं की आजादी और
शिक्षा की मिसाल स्थापित करके शुरुआत तो की लेकिन समाज की जड़ता नहीं
टूटी। अम्बेडकरवादी आंदोलन जरूर जातिवादी और मनुवादी व्यवस्था को चुनौती
देता है, लेकिन अभी उसे बड़ी यात्रा करनी पड़ेगी। व्यक्ति को समानता,
सम्मान, स्वतंत्रता एवं आत्मनिर्भरता आदि प्राप्त करने में जहां से भी
सहयोग मिलता है, वहां से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। समय रहते हुए
यदि हम सड़ी-गली परंपराओं को तोड़ते तो जीवन जीने के लिए ये आवश्यकताएं हम
अपने यहां से ही पूरा कर लेते तो पश्चिम के देश से प्रभावित होने की
जरूरत ही नहीं थी। चीन हमसे कम रूढ़िवादी नहीं था लेकिन वहां पर
सांस्कृतिक क्रांति सत्ता के द्वारा की गयी। प्रतिक्रियावादी मूल्यों को
डंडे की जोर से भी खत्म किया गया। यदि वे अपने यहां समय के अनुसार
सांस्कृतिक क्रांति न किये होते तो जो भी सभ्यता प्रगतिशील एवं
मानवतावादी होती, उनके समाज को प्रभावित कर देती। हमें आज़ादी प्राप्त
किये 65 वर्ष हो गया और सरकारों ने तमाम योजनाएं बनायीं, लेकिन जाति
तोड़ने एवं पुरुषवादी सोच को खत्म करने का प्रयास नहीं किया गया। यह कार्य
समाज के कठमुल्लों पर छोड़ दिया गया। भला वे क्यों सामाजिक परिवर्तन करते?
सरकार का हस्तक्षेप होना चाहिए था, लेकिन वोटबैंक खराब न हो, इसलिए
अधिकतर नेता परिवर्तन करने के लिए आंदोलन किए ही नहीं। चाहे सामाजिक
नेतृत्व हो या राजनैतिक, ज्यादातर लोग खुद ही रूढ़िवादी रहे और पुरानी
भेदभाव एवं असमानता वाली सोच से ऊपर नहीं उठ सके।
संचार की दुनिया में बड़ी क्रांति आयी है, जिसकी वजह से स्वतः महिलाओं ने
अपने तरह से बराबरी और रहन-सहन के तरीके अपनाए। जींस एवं शर्ट भी पहन
लिया। उच्च शिक्षा में भी भागीदारी ली। राजनैतिक नेतृत्व भी इनके हाथ में
आया। टेलीफोन, मोबाइल एवं तमाम आधुनिक वस्तुओं का धडल्ले से इस्तेमाल
किया और बाहर से दिखीं कि अब ये पुरुष के समान पहुंच रही हैं लेकिन सोच
के स्तर पर बदलाव बहुत कम हुआ। ये औरतें भी उन्हीं कर्मकांडों एवं
मान्यताओं को अपनाया जिससे पुरुष के मुकाबले में कमतर तो होना ही है। पति
को परमेश्वर मानना और उसकी दीर्घायु के लिए करवाचौथ का व्रत रखना, क्या
पुरुष ने भी महिलाओं के लिए ऐसी भावनाएं दिखायी? क्या इन महिलाओं ने
उपरोक्त में धार्मिक एवं सामाजिक स्तर पर किये गए अतीत के भेदभाव का
बहिष्कार किया? मर्जी या गैरमर्जी से यदि यदि इनका सेक्स संबंध हुआ और वह
गैरकानूनी है तो इन्होंने पूरी इज्जत ही खो दी, जैसे कि सारी इज्जत इनकी
इसी में हो और बुद्धि, शिक्षा, ईमानदारी, वफादारी आदि का नंबर शून्य।
बलात्कारी से ज्यादा पीड़ा तो जीवनभर समाज एवं मीडिया देते हैं, जब वे
कहते हैं कि उसकी इज्जत तार-तार हो गयी और वह चरित्रहीन है। यदि हम अपने
समाज को स्वस्थ रखना चाहते हैं तो दोष दूसरों को देने के बजाय अपनी
सभ्यता की कमियों को दूर करना पड़ेगा। सख्त कानून भी समाज को विकृत होने
से रोक नहीं पाएगा।
यह कहना बिल्कुल गलत है है कि गड़बड़ी इंडिया में हो रही है भारत में नहीं।
जोधपुर में दो गांव ऐसे हैं, जहां 100 वर्ष के बाद बारात आयी, क्योंकि
लड़कियां पैदा होते ही मार दी जाती थी। जिस भारत को मोहन भागवत जी आदर्श
मान रहे हैं और इंडिया को विकृत, वे दलितों, आदिवासियों एवं पिछड़ों की
पीड़ा को नहीं जानते। राजस्थान में तमाम ऐसे गांव हैं, जहां पर दबंग कमजोर
वर्ग की औरतों के साथ जबरन सेक्स करते हैं लेकिन बात बाहर इसलिए नहीं आती
क्योंकि एक तो वहां पर इलैक्ट्रानिक चैनल की पहुंच नहीं है और दूसरा ऐसे
तो पहले से ही चला आ रहा है। इंडिया की औरतों को कई गुना ज्यादा
मान-सम्मान, भागीदारी, बराबरी मिल चुकी है, जबकि भारत की नहीं।
- डॉ0 उदित राज
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