प्रेम क्या है?

 

आदित्य देव पाण्डेय
प्रेम एक बौद्धिक चेतना है, जिसे पाने के लिए अनेकों आत्माएं भटक रही हैं। कोई इसे कविताओं में तो कोई इसे कहानियों में खोज रहा है। कोई पर्वतों, नदियों और जंगलों की श्रृंखलाओं में तो कई अन्य मायावी आत्माओं अथवा देह में। हर किसी की अपनी एक परिभाषा है। लेकिन यहां सबकी चाह के आधार पर प्रेम इंद्रीय आकर्षण की परिणति महसूस होती है। मैं भी इससे इतर नहीं सोच पाता। किंतु मेरी परिभाषा कुछ ऐसी है। प्रेम एक आभाषी प्रतिबिम्ब का वास्तवीक स्वरूप है। यह हमारे मनोभाव में अंकुरित हो हृदय का स्पंदन बन जाता। यह आत्म चेतना की वह स्थिति होती है, जिस भाव के लिए हम इस भवसागर में भटक रहे होते हैं। इसकी तरुणाई हमारे आलस्य का विरोधी और खुशियों का प्रणेता होता है। इसकी प्रोढ़ता हमारे मनोबल और नेतृत्व की अंगरक्षक तथा गुरु व्यवहार रूपी ईष्ट होती है। यह दैवीय आभाष का आनन्द देने वाली आत्मीय चेतना हमारे अवगुणों का हरण कर तथा उस सद् से लवरेज कर आत्मा से परमात्मा तक की दूरी को सहजता से खत्म कर अपने अंतिम अवस्था में हमें अमरत्व प्रदान करती है। वास्तव में यह प्रेम अपने अंकुरण की अवस्था से अंतिम घड़ी तक हमें इतना मजबूत कर देती है कि संसार में व्याप्त कोई भी व्याधि अथवा बुराई हमें प्रभावित नहीं कर सकती।
    मैं यहां एक शब्द से थोड़ा भ्रमित होता हूं, जिसे समाज प्यार कहता है। यह प्यार हर तरफ सर्वत्र नजर आता है। यह प्यार आकर्षण का स्थाई रूप महसूस होता है। यह किसी उद्देश्य व ध्येय की माध्यम बन जाता है, तो कभी स्वार्थ की पूर्ति। लेकिन यह आकर्षण से जन्मी आभा कभी कभी प्रेम की अवस्था को ग्रहण कर लेती है। प्रेम और प्यार यानी लव में मुझे इतना ही अंतर महसूस होता है, जैसे समूद्र का ऊपरी सतह और निचला शांत थल।



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