दस बाई बारह- part 1
आदित्य देव पांडेय
चेहरे पर मुस्कान लिए कल्पना अपने ख्यालों में खोई हुई थी। वो भी क्या दिन थे।
बीएचयू से स्नातक फिर परास्नातक किया। विश्वविद्यालय में आयोजित हर कार्यक्रम में भाग जरूर लेती। यदि कभी नाम लिस्ट में नहीं होता तो सहेलियां जबरन डलवा देतीं। अनामिका मैम जो विभागाध्यक्ष थीं, वो भी अथक स्नेह रखतीं थीं। घर पर भी कितना मजा आता। कृतिका, स्नेहलता, उर्मिला और वो गोलगप्पा मेरी लाडो सृष्टि हर शाम घर आ जाती। कभी अस्सी, गोदौलिया तो कभी बीएचयू कैम्पस व वीटी में शाम गुजरती। स्कूटी निकाली, चेहरे पर कपड़ा बांधा और निकल गए सैर पर।। .... ओ महारानी क्या कर रही हो कमरे में। व्हाट्सएप या अपने मम्मी पापा से मेरे को मरवाने की फोन पर प्लानिंग कर रही हो। सासु मां ने बड़े गुस्से में कल्पना को पुकारा। कल्पना को वो नाम से नहीं तानों से ही सम्बोधित करती थीं। शुरू में कल्पना इससे काफी आहत हुई। बहुत रोई। मम्मी पापा को भी बताई। अपनी किस्मत को भी कोसी। पर कोई फायदा नहीं हुआ। सासु मां का रवैया दिन ब दिन और रूखा ही होता गया। कल्पना के पिता जी भी आए कि सासु से बात कर हल निकाल लेंगे पर समस्या हो तो हल निकाला जा सकता है। पर, जहाँ समस्या समझ और संकीर्ण विचारों की हो वहाँ कोई बदलाव नहीं ला सकता।
आयी मां! कहते हुए कल्पना कमरे से निकली। कल्पना को देखते ही चेहरा लाल करते हुए सासु मां बोलीं, दिन भर कोठरी में बैठ के फोन पर लगी रहती हो। खाना तैयार हुआ। कल्पना ने जी कह सिर हिला दिया। सासु माँ ऐंठते हुए बोलीं। पता नहीं मैंने कौन से कर्म किये जो ऐसी बहू मिल गयी। आते ही घर में कलह लेते आयी। किस बुरी घड़ी में ये सब हो गया। सबकी मति ही जैसे भगवान ने भ्रष्ट कर दी हो। तानों के बाद फिर एक सवाल छोड़ा, सबने खाना खा लिया। कल्पना में फिर जी कह सिर हिला दिया। सासु ने फिर पूछा और तुम खाई। कल्पना ने उसी सौम्यता से उत्तर दिया। जी मां। सासु अम्मा चिल्ला उठीं। हाँ, तुम क्यों नहीं खाओगी। घर की सारी खुशियाँ तो खा ही गई हो। समझ नहीं आता मैं क्या करूँ। घर को नर्क बना दिया है। इसी तरह बोलती हुई सासु मां छत पर चली गईं। पर कोसने और चिल्लाने की उनकी आवाज़ सिर्फ हल्की हुई थी, बंद नहीं। सासु का यह व्यवहार सिर्फ उस दिन या उस घंटे का नहीं। यह कल्पना के उस घर में कदम रखने के साथ से ही शायद शुरू था। शायद इसलिए क्योंकि ससुर को भी ऐसे ही तानों से गुजरना पड़ता है। कल्पना के ससुर केशव प्रसाद मिश्र व्यवहार से खाफी खुशमिज़ाज और मिलनसार हैं। वो जीवन की वास्तविकता और अपने दायित्वों को भली भांति समझते हैं। पर उनकी पत्नी जगदम्बिका मिश्रा शुरू से ही घर पर तानाशाही पूर्ण व्यवहार के साथ हावी थीं। केशव प्रसाद को अक्सर तानें मारतीं, जाने किसके गले में बाबू जी ने बांध दिया। नीर मूरख है ये आदमी। जाहिल। गवार। नर्क बना दिया मेरी जिंदगी। और बहुत कुछ। ऐसे में केशव जगदम्बिका के प्रसाद बन सामने पड़े रहते। शरीर उनका घंटी की तरह कांप जाता। हृदय की गति एक हो शंख की तरह ध्वनित हो उठतीं। मन, कर्म, वचन और सम्पूर्ण पुरुषार्थ फूलों की तरह जगदम्बिका के चरणों में बिछ जाता।
जगदम्बिका का बड़ा बेटा जीतेन्द्र लखनऊ सचिवालय में बड़े बाबू थे। उसकी पत्नी सौम्या गृहणी थीं और ससुराल में सबकी लाडली। सौम्या के पिता कुलभूषण तिवारी उत्तर प्रदेश पुलिस में थे। उन्होंने सौम्या की शादी बड़ी धूम धाम से की थी। पन्द्रह लाख तो उन्होंने जीतेन्द्र को दहेज ही चढ़ा दिया। केशव ने तो दस लाख ही मांगे थे, पर जगदम्बिका की जिद थी कि लड़का सरकारी नौकरी करता है। खेत बाड़ी भी ठीक है। दस लाख दहेज तो कोई भी दे देगा, पर शादी अठारह लाख से नीचे नहीं तय हो पाएगी। कुलभूषण विभाग के भ्रष्ट कर्मी थे, लेकिन अपने गांव में बहुत पैसे वाले व्यक्ति के तौर पर सम्मानित थे। वास्तव में यह काल मुद्रा नीति की नैतिकता पर आधारित था। धन ही समाज में स्थापित करता था। विचार और नैतिकता सोशल मीडिया या फिर शीतल सभागार में व्यक्तित्व निर्माण की जगह बन चुकी थी। सौम्या की घर में रानी सी पूछ थी। किसी से भी की गई उसकी बदज़ुबानी उसका बचपना कह सब टाल जाते। जीतेन्द्र की मासिक आय और ऊपरी कमाई सौम्या का नैतिक कौशल घर परिवार में स्थापित करता था। सौम्या यदि रसोई में जाती तो जगदम्बिका उसे प्यार से पुचकारती बेटा आप क्यों रसोई में आईं। महंगी साड़ी है, खराब हो जाएगी। ये सोने के कंगन खराब हो जाएंगे। आप सुबह से जग कितना काम कर रही हो। आप अपने कमरे में जाओ। फिर जगदम्बिका कल्पना को आवाज़ लगतीं। ओ महारानी, ये लड़की सुबह से मर रही है और तुम कमरे में बैठी है। शर्म नहीं आती। हे भगवान ऐसी बहु किसी को न दे। मेरे तो कर्म ही फूट गए। और घंटों तानों की बारिश शुरू हो जाती। कल्पना सुबह उठ सब काम पूरा करने के बावजूद भी रसोई में रोती हुई जाती और घंटों वहीं खड़ी रहती। जब तक दूसरा काम न आ जाता। बाहर निकलने की हिम्मत न होती कि कहीं सासु माँ देखेंगी तो नाराज होंगी। यह क्रम गर्मी हो या ठंडी। उसे हर मौसम सताने में बराबर काम करते। उसकी गलती सिर्फ उसका पति कमजोर और निकम्मा होना था शायद पर जगदम्बिका दहेज़ व समान को भी नापंसद का बता गुर्राती रहती थी। दहेज़ में केशव प्रसाद ने बेटे के निकम्मेपन और शादी की उम्र निकल जाने के कारण दो लाख की मांग रखी पर जगदम्बिका अपने लड़के को सोना हीरा समझ शादी से ऐन वक्त पहले चार लाख पर अड़ गई। ऐसे में कल्पना के पिता शैलेन्द्र त्रिपाठी ने किसी तरह जुगाड़ कर वो पैसे दिए। शैलेन्द्र प्राइवेट कंपनी में अदने से कर्मी थे। बारह हजार तनख्वाह में दो बेटियों को पढ़ाना लिखाना फिर घर चलाना उनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं था। पर वो अपनी पत्नी चैत्रा और दोनों बेटियों कल्पना और कृतिका को किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने देते। महंगाई विपक्ष और उनको तो महसूस हुई पर घर पक्ष को मालूम चलता।
जीतेन्द्र से छोटा धर्मेंद्र शरीर से तो पुष्ट पर काम नहीं करना चाहता। सरकारी नौकरी की तैयारी के नाम पर घर से पैसे तो लेता पर उसका प्रयोग वह नशे और अन्य व्यशनों में करता। जगदम्बिका का राइट हैंड बन घर की सम्पदा का उपयोग वह अपने आनंद में करता। अपना अधिक वक्त वह सोने और टीवी में ही गुजरता। धर्मेंद्र ने मां को यह विश्वाश दिला दिया था कि वह तो बहुत मेहनती है पर एक या दो नंबरों से सरकारी नौकरी उसकी किस्मत को चकमा दे रही है। धर्मेंद्र की पत्नी कल्पना शादी के साल ही यूपी पीसीएस मेंस निकाल ली थी, पर धर्मेंद्र ने उसे साक्षात्कार में बैठने नहीं दिया। उसने सोचा यदि कल्पना नौकरी करेगी तो मेरा जमा जमाया घर में व्यवहार खराब हो जाएगा। उस पर भी नौकरी या प्राइवेट में ही जॉब करने का दबाव बनने लगेगा। उसने जगदम्बिका का कान भरना शुरू कर दिया। धर्मेंद्र जगदम्बिका के पास नींबु पानी लेकर पहुँचा। माँ ये लो नींबु पानी कह धर्मेंद्र ग्लास माँ को थमा पास रखी कुर्सी पर बैठ गया। माँ! भइया भाभी को लेकर लखनऊ चले जायेंगे। आप भी अब बीमार रहने लगी हैं। और ये कल्पना नौकरी करने की ज़िद पकड़े बैठी है। मैंने तो उसे समझाया कि यहीं किसी स्कूल में जॉब दिला देंगे। सरकारी नौकरी के पीछे न भागो। शादी के बाद घर गृहस्ती भी कोई चीज होती है। माँ भी अब असमर्थ हो रहीं हैं। लेकिन, वो तो नौकरी की जिद पर अड़ी है। मुझे तो लगता है उसे घर में रहने में दिक्कत है। वो मौज मस्ती के लिए नौकरी करना चाहती है। हम जैसे उसे गुलाम बना रखे हों। वो तो बिहार, झारखंड व एमपी का भी फॉर्म भरी थी। मैंने भी साफ कह दिया, वाराणसी से बाहर कहीं नहीं जाना। नौकरी करनी होगी तो माँ से इजाज़त ले लेना। मैं नौकरी के पक्ष में नहीं हूँ। जगदम्बिका भी बीच बीच में चौकने के अंदाज में बोलती रही। हाँ, ऐसा, बताओ..., उसका दिमाग ज्यादा खराब हो गया है, बहुत उड़ रही है, हम सबको मजाक बना रखा है। और भी बहुत कुछ। धर्मेंद्र माँ के रक्त प्रवाह को रफ्तार दे दरवाजे के पास खड़े हो जाते जाते बोला। माँ! मुझे तो लगता है उसके मम्मी पापा उसे भड़काते हैं। खैर माँ कर भी क्या सकते हैं, जो भाग्य में लिखा होगा वही तो होगा।
जगदम्बिका के हृदय में ज्वालामुखी फूट चुकी थी। उसका बस चलता तो वो कल्पना को तत्काल वहीं भष्म कर देती। जगदम्बिका चिल्लाते हुए नीचे उतरी। खबरदार जो नौकरी का फॉर्म भरा। हम लोगों की इज्ज़त का तो ख्याल ही नहीं। हमसे अंग्रेजी झाड़ती है। सोचती है बहुत पढ़े लिखे हैं। मैं भी देखती हूँ, महारानी कहाँ नौकरी करती हैं। तुम्हारे घर वाले जो पढ़ा लिखा रहे हैं न, मैं सब समझती हूँ। खरदार जो एक भी फॉर्म धर्मेन्द्र के इजाज़त के बिना भर दिया। न खाना बनाने का सऊर। न ही कोई काम ढंग से हो पाता है। इस दौरान कल्पना चुप चाप सब सुन नम आंखों से खुद को कोस रही थी।
कल्पना की आंखें भर आयी थीं। ये भी क्या जीवन है। कहाँ महिलाएं आगे बढ़ी हैं। यदि सासु जैसी औरतों के चिल्लाने सोर मचाने को अधिकार कहेंगे तो यह धोखा है। मेरा कसूर क्या है। किसी इंसान की नीयत क्यों नहीं मालूम चल पाती। क्या धोखा खाकर अनुभव मिले यह नियति ने निश्चित कर रखा है। हमारा वजूद क्या है। किस अस्तित्व को मैं कल्पना कहूँ। खुद को तो अब इंसान कहने में भी शर्म आती है। ये दस बाई बारह का कमरा ही जीवन बन चुका है। यहीं जगना, सोना, टहलना और अपनों के खयालों में डूबना व तैरना। एक स्त्री से क्या क्या अपेक्षाएं रखता है ये समाज। दोहन, शोषण, प्रताड़ना, व्यभिचार। यही सब। क्या हम अपने जीवन को इसीलिए सजाते हैं। दस बाई बारह की चार दीवारी में कैद होने के लिए। गाली, अपमान, अशिष्टता, द्वेष और कुंठा को जीने के लिए। एक अभिशापित जीवन के वरण के लिए। क्या हम बीस बाइस साल उस गौरी और तैमूर का इंतजार करती हैं, जो हमारे मन मंदिर को विध्वंस कर हमारे देह को गुलाम देश बना अट्टहास करे। हमारा वजूद कुंठित बुद्धि की संकीर्णता की दास बने।
कल्पना अपने मम्मी पापा की ही नहीं पड़ोसियों और रिश्तेदारों का भी भरोसा थी। खाना की बात हो तो स्वाद उसके हाथों की हथेली बन जाती। हर कोई वाह किए वगैर नहीं रह पाता। गाँव से या पड़ोस में कोई भी बीमार पड़ जाए, कल्पना सुबह बीएचयू चलना तो मुझे भी हॉस्पिटल में दिखा देना। उन्हें दिखा अपने कैम्पस जाना। शाम को सब्जी लाना। घर की जरूरी खरीदारी, सिलेंडर भरवाना, होली या दिवाली की खरीदारी करना या रोज का बाज़ार करना। घर में रुद्राभिषेक हो या कोई भी आयोजन। कौन आएगा, कौन आया, कहाँ पहुँचा, कोई दिक्कत, सबका समाधान निकाल लेती थी कल्पना। उसका प्रबंधन देख पड़ोसियों के बच्चों को ताने सुनने पड़ जाते। नृत्य, फैशन, मेहंदी, मेकअप कुछ भी हो कल्पना सबकी मास्टर थी। कुछ ही पल में सबके साथ घुल सबकी अपनी हो जाती थी कल्पना। पर शादी के बाद से उसका व्यक्तित्व, प्रबन्धन, कौशल, व्यवहार सब छिड़ हो गये। जगदम्बिका की इर्ष्या और तुनकमिजाजी स्वभाव ने कल्पना को अंदर ही अंदर जैसे तोड़ दिया हो। जगदम्बिका को केशव प्रसाद ने भी उसके व्यवहार को लेकर बहुत समझाया पर कोई हल नहीं निकला। केशव प्रसाद को भी सिर्फ जगदम्बिका के क्रोध को ही सहना पड़ा। कभी कभी एक दो दिन भूखे भी गुजारना पड़ा। यदि कल्पना पूछ भी दे खाने के लिए तो जगदम्बिका चीख पड़ती। फिर घंटों कलह घर में तांडव करने लगता।
कल्पना जब से ससुराल में आई तब से शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उसकी आँखें सुखी हों। कभी धर्मेंद्र के ताने तो कभी जगदम्बिका के जिह्वा से निकले अंगार, उसे चोटिल कर जाते। कल्पना उस कमरे में कैद थी। वहां कोई रोशनदान भी नहीं था कि उजाले से मुलाकात हो। आंगन में दोपहर के बारह बजे पन्द्रह मिनट के लिए धूप आती तो वह अपनी जिंदगी की उज्ज्वल छटा से रूबरू होती। ख्यालों में खो जाती। गोदवालिया की वो भीड़। रथयात्रा, दुर्गा कुंड और विजया चौराहा से गुजरती उसकी स्कूटी। हर मंगल और शनिवार को संकट मोचन मंदिर में हनुमान चालीसा पढ़ना और बन्दरों को लड्डू खिलाना। कई बार तो बंदर लड्डू का पूरा डिब्बा भी छीन ले जाते। पर बीती बातें अब स्मरणों में धूमिल होती जा रही थीं और दिमाग पर जो परत चढ़ रही थीं वह असहनीय पीड़ा की हैं, जिसे सहना नियति बन चुकी है।
कल्पना अपने से ही कभी कभी बातें करतीं। घर में कोई बात नहीं करता। मानो वह काले पानी की सजा काट रही हो। बेड़ियां भले लोहे की न हों पर थी परिवार की, मर्यादा की और झूठी नैतिकता व आदर्श की। जहां इनका पालन सिर्फ कल्पना को करना था। रोज के ताने और घृणा पूर्ण बातें उसे छलनी करतीं। जगदम्बिका, केशव प्रसाद, जीतेन्द्र, सौम्या और धर्मेंद्र के लिए कोई नियम कायदा नहीं था। मानो कल्पना कोई बागी हो। या फिरंगी। ससुराली चाहें तो जलियावाला बाग़ कांड करके भी मेडल ले लें और कल्पना को फाँसी मुकर्रर करा दें। कल्पना उस जेल में कैद थी जहाँ समाज घुटने टेक चुका था। बेरहमी थानेदार थी। सच्चाई चोरी की सजा काट रही थी। ईमानदारी अपनी बेगुनाही के लिए थानेदार के तलवे चाटने को मजबूर थी। अच्छाई सजा के इंतजार में सलाखों के पीछे चुपचाप खड़ी थी। कल्पना का दिमाग सवाल जवाब करना बंद कर रहा था। वो सोच रही थी। खुद से कुछ पूछ रही थी, अपने से बात कर रही थी। मैं कौन हूँ। क्या हूँ। क्यों हूँ। इससे बेहतर मृत्यु को क्यों न समझूँ। पर कायरता मेरे जीवन का हिस्सा नहीं बन सकता। यदि यह दशा आयी तो इन मूर्खों को सबक सिखाऊंगी। समाज को जगाऊंगी। लड़कियों के लिए रास्ता तैयार करूँगी। वो डरें नहीं, लड़ें दहेज लोभियों से, लालचियों से, धोखेबाजों से, जाहिलों से। हारें नहीं, इन्हें सबक सिखाएं, ताकि और कोई किसी अन्य कल्पना को परेशान न कर सके। कल्पना के जीवन में यह आशा निराशा का ज्वार भाटा आता जाता रहा और दो महीने कट गए। कल्पना एक सुबह सबके लिए चाय बना रही थी। उसने अखबार उठा नजर फिरायी। नोटबन्दी को लेकर पक्ष विपक्ष की नोंक झोक से पहला पन्ना पटा पड़ा था। कल्पना ने उस पन्ने को बिना पढ़े आगे के पन्ने उलाटने शुरू कर दिए। वो सोच रही थी, इस नोटबन्दी का क्या पता हमें क्या फायदा हो। यह तो भगवान जाने। तभी उसकी नज़र एसएससी की खबर पर पड़ी। सीजीएल के अभ्यर्थियों की रुकी ज्वाइनिंग को कोर्ट ने बहाल करने की मंजूरी दे दी थी। इसी महीने सरकार को ज्वाइनिंग देनी है। कल्पना की खुशियों का कोई ठिकाना न था। क्योंकि यह परीक्षा उसने भी पास कर रखी थी। पर फिर वो सहम गई। सासु माँ और वो क्या इजाज़त देंगे, ज्वाइनिंग के लिए। क्या मैं अपने नाम के अनुरूप कभी वास्तविक नहीं बन पाऊंगी। वास्तव में मैं सिर्फ कल्पना हूँ। खामखा अपने वजूद की ख़्वाहिश में अपने आप को गुमराह कर रही हूँ। कल्पना ख्यालों में खो गयी। मैं कल्पना हूँ। कोरी कल्पना। मिथ्या के काफी करीब।मेरे अस्तित्व को लेकर शीतल सभागारों में स्नेहपूर्ण चर्चा होती है। कोई मेरे अस्तित्व का श्रृंगार कर करतल ध्वनि से अपनी आंखों के मैल को धोता है। कोई कल्पनाओं के सागर से समाज और परिवार को नमक खिलाता है। वफ़ा और वफादारी का। पर कल्पना वास्तविकता नहीं हो सकती। पुरुष के साथ ही मेरा भी जन्म हुआ। पर मेरा व्यक्तित्व और मेरे अधिकार आज भी शोध का विषय है। मेरा मूल और मूल्य दोनों अभी निर्धारित होने हैं। मेरा व्यक्तित्व और विचार उपयोग में लाने के लिए अभी अध्ययन हो रहा है। कई संस्थान मेरे लिए यानी कल्पना को वास्तविक रूप देने में जुटे हैं। पर मैं तरल तरंग हूँ। जिसकी रचना उथले हिस्से पर लहराने के लिए है न कि स्थायी व्यवहार के लिए। मैं उतनी ही वास्तविक हूँ जितना क्षितिज। दूर से देखने वाला मेरे वजूद को वास्तविक समझता है पर अपने ज़ेहन में नहीं। सच कहूं तो मैं कल्पनाओं के इस वायुमण्डल में ऑक्सीजन तो हूँ पर प्रदूषण पर विराम कौन लगाना चाहता है यहाँ। अब लोग कहने लगे हैं हवा दूषित है। उन्होंने कुछ नहीं किया। लोगों के मन को रोमांचित करने वाली कल्पना हूँ मैं। खुली और बंद आँखों की स्वप्निल कल्पना हूँ मैं। झरोखों से गर्म तपिस देने वाली कल्पना हूँ मैं। पर्दे में लिपटी झुंझलाहट भरी कल्पना हूँ मैं। किसी की कलाई तो किसी का सिरमौर बन केश सी काली कल्पना हूँ मैं। घर और राह से लेकर मानव संस्थान तक मात्र कल्पना हूँ मैं। कल्पनाओं का प्रयोगशाला हूँ मैं। 21वीं सदी में भी अस्तित्व की तलाश में भटकती एक कल्पना हूँ मैं। कल्पना हूँ मैं।
तभी धर्मेद्र जम्हाई लेते पहुँचता है। बड़े रोबदार लहज़े में कहता है। ह भई! चाय बनी। धर्मेंद्र की आवाज सुन कल्पना वास्तविक दुनिया में पहुँच जी कहती है। जी अभी लायी चाय। और कल्पना यह बोलते हुए चाय छानने लगती है। धर्मेंद्र भी पास आ जाता है किचन में चाय लेने। कल्पना को लगा सुबह का वक्त है। सबका मूड अच्छा है। बता देती हूँ। शाम तक न जाने क्या सत्यानाश हो जाये। कल्पना दबी सहमी आवाज में बोली, वो मेरा एसएससी सीजीएल में हो गया है। इसी महीने ज्वाइनिंग है। धर्मेंद्र ने हूँ कहा और वहां से चला गया। कल्पना खुश थी चलो कुछ नहीं बोले यानी मान गए।
धर्मेंद्र वहाँ से सीधे जगदम्बिका के पास पहुँचा और बोला। माँ! वो कल्पना का सरकारी नौकरी में चयन हो गया है। मुझे बहला रही थी अभी कि नौकरी की इजाज़त दे दूं। मैंने साफ कह दिया, माँ से पूछ लो। तो वो नाराज़ हो बोली शादी आपसे हुई है या माँ से। माँ यहाँ क्या अनुभव रखतीं हैं जो बताएंगीं। नौकरी करूँगी तो आप लोगों का ही भला होगा। जगदम्बिका अपने क्रोध को रोक नहीं पाई और चिल्लाते हुए कल्पना के पास पहुंची। हाँ बोलो, क्या दिक्कत है तुम्हें इस घर में। खाना पानी नहीं मिलता। कोई मारता पिटता है। क्यों हमारी नाक कटवाना चाहती हो। अपने कमरे में रहो और अपना परिवार सम्भालो। मैं तो तुम्हारी नज़र में मूर्ख हूँ। मुझे नालायक़ समझो या समझदार, ख़बरदार जो नौकरी के बारे में सोची। हमें तुम्हारी कमाई नहीं खानी। मोहल्ले में हमें नीचा दिखाना चाहती है। हम लोगों से हमेशा उल्टा चलती है। बदनाम करके छोड़ेगी। ख़रदार जो नौकरी की बात फिर की अब। धर्मेंद का कहीं न कहीं हो ही जाएगा। उसके बाद तुम दोनों अपना घर बार देखना। दोनों भाइयों के परिवार के लिए दो तले बना दिये हैं। फिर हमसे कोई मतलब नहीं रहेगा। घर की खुशियां न खाओ। ख़ुद भी चैन से रहो और हमें भी रहने दो। सुबह ही सुबह तांडव शुरू करवा देती है घर में। कल्पना को गालियां देतीं हुयी जगदम्बिका कमरे में चली गयीं। शाम तक घर का महौल गरम रहा। कल्पना कांपते शरीर के साथ दिल दिमाग में क्रोध और सदमा लिए अपने दस बाई बारह के कमरे में बैठ दुख को आँशु बना अपनी जिंदगी को कोश रही थी।
कल्पना जगदम्बिका के व्यवहार से उतना आहत नहीं थी, क्योंकि इससे थोड़ा ज्यादा या कम जगदम्बिका उसे रोज़ कोसती थी। इतना अपमान उसकी ज़िन्दगी का हिस्सा हो चुका था। ससुराल में तिरस्कार ने उसका स्वागत किया। घृणा और द्वेष ने उसे यहाँ सजाया। दया ने जीने की राह बनाई। बेचारगी भाग्य बनी। पर कल्पना फिर भी खुश थी। एक दो बार कल्पना ने कपनी माँ चैत्रा को फोन कर अपनी दशा भी बताई। दोनों खूब रोये। माँ चिन्ता में बीमार पड़ गयी। पापा शैलेन्द्र भी बुझे बुझे से रहने लगे। कृतिका ने कई बार शैलेन्द्र को अकेले में रोता भी देखा। उसने यह बात कल्पना को बता दी। इसके बाद कल्पना ने यह फैसला लिया कि माँ परेशान न हों, पापा को पछतावा न हो इसके लिए वह सब सह चुप रहेगी। जगदम्बिका के जाने के बाद धर्मेंद आया और कल्पना को घूरते हुए बोला, जैसी हो जिस तरह हो उसमें खुश रहो। ज्यादा उड़ो नहीं। समझी। और वह आंखे तरेरता हुआ छत पर चला गया। कल्पना निःशब्द हो पथराई सी आँख से उसे एकटक देखती रह गई। वो सोच रही थी क्या पति ऐसा ही होता है। पति का अर्थ तो प्रेरणा उसे बताया गया था। उसने सुना था पति साथी बन जीवन में सुख शांति लाता है। सहयोगी की भूमिका निभाता है। मित्र बन रिश्तों को शहद सा मधुर बनाता है। प्रेमी बन जीवन को स्वर्ग सा सुन्दर स्वरूप देता है। दोस्ती की मिसाल कायम कर शक्ति और सामर्थ्य बनता है। वह आत्मा होता है। वो पत्नी की जिंदगी में आने वाली हर बाँधा को दूर कर मार्ग प्रशस्त करता है। पर ये क्या। धर्मेंद्र ऐसा कैसे कर सकते हैं। धोखा, छल, फरेब, अमानवीयता, अशिष्टता ये किसी पति परमेश्वर के तो गुण नहीं हो सकते। उसे सम्मान देना क्या मेरी बाध्यता है या डर। उसके साथ रहना, जीवन जीना मेरी विवषता तो नहीं हो सकती। मेरी शिक्षा, ज्ञान और बौद्धिकता गुलामी करने के लिए तो नहीं ईस्वर ने प्रदान की होंगी। मायके में सैकड़ों लोगों के साथ पच्चीस वर्ष खुशी खुशी तालमेल के साथ जी ली, पर यहाँ रिश्तों में कोई समीकरण क्यों नहीं बैठ पा रहा है। आक्रोश की ज्वाला क्यों यहां धधक रही है। क्या मेरे में ही कोई दोष है, जो मैं दूर नहीं कर पा रही। जिसे मैं समझ नहीं पा रही। नहीं, नहीं। ऐसा नहीं हो सकता। कल्पना खुद को ढांढ़स देते हुए रसोई में चली गई। दोपहर में चैत्रा का फोन आने पर कल्पना जगी और फोन उठा भारी आवाज़ में बोली, हाँ माँ। चैत्रा ने कल्पना की आवाज़ से उसके दर्द को पहचान लिया और बोली। क्या हुआ बेटा। तबियत तो ठीक है ना। हाँ माँ, कह कल्पना ने आवाज़ बदली। वो माँ अभी तुरन्त सोई थी न। फोन की आवाज़ सुन जग गयी। इसीलिए अभी ऐसी भारी आवाज आयी। चैत्रा इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। बेटा सब ठीक है न। धर्मेंद्र जी ठीक है न। चैत्रा ने पूछा। कल्पना जवाब क्या दे समझ नहीं पा रही थी। उसका जी तो कर रहा था ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते हुए रोये। उसके अंदर दर्द और आँसुओं का सैलाब उमड़ रहा था। वो खुद को संभालते हुए बोली, हाँ माँ सब ठीक है। आज ससुर जी मेरे खाने की तारीफ कर रहे थे। सासु माँ कह रहीं थीं मेरे बाद कल्पना ही घर को संभालेगी। मेरी परीक्षा में कल्पना पास हो गयी है। और माँ, वो भी कह रहे थे कि फॉर्म भरा करो। तुम पढ़ने में अच्छी हो। घबराना नहीं। माँ यहाँ सब अच्छा है। अब वो चोरी चुपके आके एक दो मिनट बात भी करते हैं। शायद घर वालों से शर्माते हैं इसीलिये साथ नहीं रहते। माँ, सब ठीक है। कोई कुछ नहीं बोलता माँ। मेरे पहनावे, मेरी समझ और खाने की सब तारीफ करते हैं। सब ठीक है माँ। सबमें बदलाव आया है। सब अब मानने लगे हैं। सब ठीक है, माँ। माँ। कहते हुए कल्पना फोन काटकर जोर जोर से रोने लगी। कोई बाहर सुन न ले कभी हथेली तो कभी साड़ी का पल्लू ठूंस आंशुओं के क्रंदन से आलोम विलोम करने लगी। इधर चैत्रा की हृदय और रक्त की गति शरीर का साथ नहीं दे रही थी। चैत्रा ने घबराहट का पसीना पोछ अपनी आँखों की नमी को छुपा शैलेंद्र से गुहार लगायी। सुनते हैं, कल्पना को डेढ़ साल हो गए विदाई करा लाइये न। शैलेंद्र चैत्रा का चेहरा पढ़ बोले, कई बार तो उसके सास ससुर से बोला पर वे दिन ही नहीं रखते। क्या करूँ कुछ समझ ही नहीं आता। उन लोगों के दिमाग का अंदाज़ा लगाना काफी कठिन है। फिर भी मैं... तभी चैत्रा ने शैलेंद्र को रोक अपनी बात रखी। वहाँ जाइये और किसी तरह उन्हें मनाकर, विनती कर कल्पना की विदाई का दिन राखवाईये। शैलेंद्र ने लम्बी सांस ले कहा, कल ही चला जाता हूँ।
अगली सुबह शैलेन्द्र कल्पना के ससुराल पहुँच केशव प्रसाद से विदाई की बात रखते हैं। केशव प्रसाद अभी कुछ बोलते उससे पहले ही जगदम्बिका सामने खड़ी हो बोलीं। घर में देख रहे हैं कि काम करने वाला कोई नहीं है। उसके जाने के बाद यहां कौन सम्भालेगा। बड़ी बहू लखनऊ है। ऐसे में कैसे विदाई कर दें। तभी केशव प्रसाद बोले, ठीक है। दस दिन चली जाए। डेढ़ साल हो गया जरा उसका मन भी बहल जाएगा। काफी देर चर्चा के बाद जगदम्बिका एक हफ्ते पर राजी हुईं।
कल्पना को शैलेन्द्र अगले सप्ताह अपने घर लाते हैं। कल्पना इस खुले आसमान और धूप को देख खुश थी। मानों किसी को आजीवन कारावास की सजा के बीच कुछ दिन की बेल मिला हो। वाराणसी की सड़कों की शोर जगदम्बिका की चिल्लाहट से आज खूबसूरत लग रही थी। कल्पना ससुराल की बातें भूल सुनहरे आज और कल में खो गयी थी। उसकी आँखें हर इंसान और वस्तु को ऐसे निहार रहीं थीं मानों बहुत दिन बाद दो मित्र मिलें हों और दुनियाँ को भुलाकर उमंगों के अहसास में खो जाना चाहतें हों। कल्पना के आने की ख़बर सुन स्नेहलता, उर्मिला और सृष्टि ने वहीं अड्डा जमा लिया। सुबह ही आ जातीं तीनों और कल्पना व कृतिका के साथ पूरा दिन बिताती। यह सप्ताह ऐसे बीता मानों एक दिन का ही हफ़्ता हो। सातवें दिन जब कल्पना जगी तो माँ ने बताया कि वो आज धर्मेंद्र आने वाले हैं।
चेहरे पर मुस्कान लिए कल्पना अपने ख्यालों में खोई हुई थी। वो भी क्या दिन थे।
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| आदित्य देव पांडेय |
आयी मां! कहते हुए कल्पना कमरे से निकली। कल्पना को देखते ही चेहरा लाल करते हुए सासु मां बोलीं, दिन भर कोठरी में बैठ के फोन पर लगी रहती हो। खाना तैयार हुआ। कल्पना ने जी कह सिर हिला दिया। सासु माँ ऐंठते हुए बोलीं। पता नहीं मैंने कौन से कर्म किये जो ऐसी बहू मिल गयी। आते ही घर में कलह लेते आयी। किस बुरी घड़ी में ये सब हो गया। सबकी मति ही जैसे भगवान ने भ्रष्ट कर दी हो। तानों के बाद फिर एक सवाल छोड़ा, सबने खाना खा लिया। कल्पना में फिर जी कह सिर हिला दिया। सासु ने फिर पूछा और तुम खाई। कल्पना ने उसी सौम्यता से उत्तर दिया। जी मां। सासु अम्मा चिल्ला उठीं। हाँ, तुम क्यों नहीं खाओगी। घर की सारी खुशियाँ तो खा ही गई हो। समझ नहीं आता मैं क्या करूँ। घर को नर्क बना दिया है। इसी तरह बोलती हुई सासु मां छत पर चली गईं। पर कोसने और चिल्लाने की उनकी आवाज़ सिर्फ हल्की हुई थी, बंद नहीं। सासु का यह व्यवहार सिर्फ उस दिन या उस घंटे का नहीं। यह कल्पना के उस घर में कदम रखने के साथ से ही शायद शुरू था। शायद इसलिए क्योंकि ससुर को भी ऐसे ही तानों से गुजरना पड़ता है। कल्पना के ससुर केशव प्रसाद मिश्र व्यवहार से खाफी खुशमिज़ाज और मिलनसार हैं। वो जीवन की वास्तविकता और अपने दायित्वों को भली भांति समझते हैं। पर उनकी पत्नी जगदम्बिका मिश्रा शुरू से ही घर पर तानाशाही पूर्ण व्यवहार के साथ हावी थीं। केशव प्रसाद को अक्सर तानें मारतीं, जाने किसके गले में बाबू जी ने बांध दिया। नीर मूरख है ये आदमी। जाहिल। गवार। नर्क बना दिया मेरी जिंदगी। और बहुत कुछ। ऐसे में केशव जगदम्बिका के प्रसाद बन सामने पड़े रहते। शरीर उनका घंटी की तरह कांप जाता। हृदय की गति एक हो शंख की तरह ध्वनित हो उठतीं। मन, कर्म, वचन और सम्पूर्ण पुरुषार्थ फूलों की तरह जगदम्बिका के चरणों में बिछ जाता।
जगदम्बिका का बड़ा बेटा जीतेन्द्र लखनऊ सचिवालय में बड़े बाबू थे। उसकी पत्नी सौम्या गृहणी थीं और ससुराल में सबकी लाडली। सौम्या के पिता कुलभूषण तिवारी उत्तर प्रदेश पुलिस में थे। उन्होंने सौम्या की शादी बड़ी धूम धाम से की थी। पन्द्रह लाख तो उन्होंने जीतेन्द्र को दहेज ही चढ़ा दिया। केशव ने तो दस लाख ही मांगे थे, पर जगदम्बिका की जिद थी कि लड़का सरकारी नौकरी करता है। खेत बाड़ी भी ठीक है। दस लाख दहेज तो कोई भी दे देगा, पर शादी अठारह लाख से नीचे नहीं तय हो पाएगी। कुलभूषण विभाग के भ्रष्ट कर्मी थे, लेकिन अपने गांव में बहुत पैसे वाले व्यक्ति के तौर पर सम्मानित थे। वास्तव में यह काल मुद्रा नीति की नैतिकता पर आधारित था। धन ही समाज में स्थापित करता था। विचार और नैतिकता सोशल मीडिया या फिर शीतल सभागार में व्यक्तित्व निर्माण की जगह बन चुकी थी। सौम्या की घर में रानी सी पूछ थी। किसी से भी की गई उसकी बदज़ुबानी उसका बचपना कह सब टाल जाते। जीतेन्द्र की मासिक आय और ऊपरी कमाई सौम्या का नैतिक कौशल घर परिवार में स्थापित करता था। सौम्या यदि रसोई में जाती तो जगदम्बिका उसे प्यार से पुचकारती बेटा आप क्यों रसोई में आईं। महंगी साड़ी है, खराब हो जाएगी। ये सोने के कंगन खराब हो जाएंगे। आप सुबह से जग कितना काम कर रही हो। आप अपने कमरे में जाओ। फिर जगदम्बिका कल्पना को आवाज़ लगतीं। ओ महारानी, ये लड़की सुबह से मर रही है और तुम कमरे में बैठी है। शर्म नहीं आती। हे भगवान ऐसी बहु किसी को न दे। मेरे तो कर्म ही फूट गए। और घंटों तानों की बारिश शुरू हो जाती। कल्पना सुबह उठ सब काम पूरा करने के बावजूद भी रसोई में रोती हुई जाती और घंटों वहीं खड़ी रहती। जब तक दूसरा काम न आ जाता। बाहर निकलने की हिम्मत न होती कि कहीं सासु माँ देखेंगी तो नाराज होंगी। यह क्रम गर्मी हो या ठंडी। उसे हर मौसम सताने में बराबर काम करते। उसकी गलती सिर्फ उसका पति कमजोर और निकम्मा होना था शायद पर जगदम्बिका दहेज़ व समान को भी नापंसद का बता गुर्राती रहती थी। दहेज़ में केशव प्रसाद ने बेटे के निकम्मेपन और शादी की उम्र निकल जाने के कारण दो लाख की मांग रखी पर जगदम्बिका अपने लड़के को सोना हीरा समझ शादी से ऐन वक्त पहले चार लाख पर अड़ गई। ऐसे में कल्पना के पिता शैलेन्द्र त्रिपाठी ने किसी तरह जुगाड़ कर वो पैसे दिए। शैलेन्द्र प्राइवेट कंपनी में अदने से कर्मी थे। बारह हजार तनख्वाह में दो बेटियों को पढ़ाना लिखाना फिर घर चलाना उनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं था। पर वो अपनी पत्नी चैत्रा और दोनों बेटियों कल्पना और कृतिका को किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने देते। महंगाई विपक्ष और उनको तो महसूस हुई पर घर पक्ष को मालूम चलता।
जीतेन्द्र से छोटा धर्मेंद्र शरीर से तो पुष्ट पर काम नहीं करना चाहता। सरकारी नौकरी की तैयारी के नाम पर घर से पैसे तो लेता पर उसका प्रयोग वह नशे और अन्य व्यशनों में करता। जगदम्बिका का राइट हैंड बन घर की सम्पदा का उपयोग वह अपने आनंद में करता। अपना अधिक वक्त वह सोने और टीवी में ही गुजरता। धर्मेंद्र ने मां को यह विश्वाश दिला दिया था कि वह तो बहुत मेहनती है पर एक या दो नंबरों से सरकारी नौकरी उसकी किस्मत को चकमा दे रही है। धर्मेंद्र की पत्नी कल्पना शादी के साल ही यूपी पीसीएस मेंस निकाल ली थी, पर धर्मेंद्र ने उसे साक्षात्कार में बैठने नहीं दिया। उसने सोचा यदि कल्पना नौकरी करेगी तो मेरा जमा जमाया घर में व्यवहार खराब हो जाएगा। उस पर भी नौकरी या प्राइवेट में ही जॉब करने का दबाव बनने लगेगा। उसने जगदम्बिका का कान भरना शुरू कर दिया। धर्मेंद्र जगदम्बिका के पास नींबु पानी लेकर पहुँचा। माँ ये लो नींबु पानी कह धर्मेंद्र ग्लास माँ को थमा पास रखी कुर्सी पर बैठ गया। माँ! भइया भाभी को लेकर लखनऊ चले जायेंगे। आप भी अब बीमार रहने लगी हैं। और ये कल्पना नौकरी करने की ज़िद पकड़े बैठी है। मैंने तो उसे समझाया कि यहीं किसी स्कूल में जॉब दिला देंगे। सरकारी नौकरी के पीछे न भागो। शादी के बाद घर गृहस्ती भी कोई चीज होती है। माँ भी अब असमर्थ हो रहीं हैं। लेकिन, वो तो नौकरी की जिद पर अड़ी है। मुझे तो लगता है उसे घर में रहने में दिक्कत है। वो मौज मस्ती के लिए नौकरी करना चाहती है। हम जैसे उसे गुलाम बना रखे हों। वो तो बिहार, झारखंड व एमपी का भी फॉर्म भरी थी। मैंने भी साफ कह दिया, वाराणसी से बाहर कहीं नहीं जाना। नौकरी करनी होगी तो माँ से इजाज़त ले लेना। मैं नौकरी के पक्ष में नहीं हूँ। जगदम्बिका भी बीच बीच में चौकने के अंदाज में बोलती रही। हाँ, ऐसा, बताओ..., उसका दिमाग ज्यादा खराब हो गया है, बहुत उड़ रही है, हम सबको मजाक बना रखा है। और भी बहुत कुछ। धर्मेंद्र माँ के रक्त प्रवाह को रफ्तार दे दरवाजे के पास खड़े हो जाते जाते बोला। माँ! मुझे तो लगता है उसके मम्मी पापा उसे भड़काते हैं। खैर माँ कर भी क्या सकते हैं, जो भाग्य में लिखा होगा वही तो होगा।
जगदम्बिका के हृदय में ज्वालामुखी फूट चुकी थी। उसका बस चलता तो वो कल्पना को तत्काल वहीं भष्म कर देती। जगदम्बिका चिल्लाते हुए नीचे उतरी। खबरदार जो नौकरी का फॉर्म भरा। हम लोगों की इज्ज़त का तो ख्याल ही नहीं। हमसे अंग्रेजी झाड़ती है। सोचती है बहुत पढ़े लिखे हैं। मैं भी देखती हूँ, महारानी कहाँ नौकरी करती हैं। तुम्हारे घर वाले जो पढ़ा लिखा रहे हैं न, मैं सब समझती हूँ। खरदार जो एक भी फॉर्म धर्मेन्द्र के इजाज़त के बिना भर दिया। न खाना बनाने का सऊर। न ही कोई काम ढंग से हो पाता है। इस दौरान कल्पना चुप चाप सब सुन नम आंखों से खुद को कोस रही थी।
कल्पना की आंखें भर आयी थीं। ये भी क्या जीवन है। कहाँ महिलाएं आगे बढ़ी हैं। यदि सासु जैसी औरतों के चिल्लाने सोर मचाने को अधिकार कहेंगे तो यह धोखा है। मेरा कसूर क्या है। किसी इंसान की नीयत क्यों नहीं मालूम चल पाती। क्या धोखा खाकर अनुभव मिले यह नियति ने निश्चित कर रखा है। हमारा वजूद क्या है। किस अस्तित्व को मैं कल्पना कहूँ। खुद को तो अब इंसान कहने में भी शर्म आती है। ये दस बाई बारह का कमरा ही जीवन बन चुका है। यहीं जगना, सोना, टहलना और अपनों के खयालों में डूबना व तैरना। एक स्त्री से क्या क्या अपेक्षाएं रखता है ये समाज। दोहन, शोषण, प्रताड़ना, व्यभिचार। यही सब। क्या हम अपने जीवन को इसीलिए सजाते हैं। दस बाई बारह की चार दीवारी में कैद होने के लिए। गाली, अपमान, अशिष्टता, द्वेष और कुंठा को जीने के लिए। एक अभिशापित जीवन के वरण के लिए। क्या हम बीस बाइस साल उस गौरी और तैमूर का इंतजार करती हैं, जो हमारे मन मंदिर को विध्वंस कर हमारे देह को गुलाम देश बना अट्टहास करे। हमारा वजूद कुंठित बुद्धि की संकीर्णता की दास बने।
कल्पना अपने मम्मी पापा की ही नहीं पड़ोसियों और रिश्तेदारों का भी भरोसा थी। खाना की बात हो तो स्वाद उसके हाथों की हथेली बन जाती। हर कोई वाह किए वगैर नहीं रह पाता। गाँव से या पड़ोस में कोई भी बीमार पड़ जाए, कल्पना सुबह बीएचयू चलना तो मुझे भी हॉस्पिटल में दिखा देना। उन्हें दिखा अपने कैम्पस जाना। शाम को सब्जी लाना। घर की जरूरी खरीदारी, सिलेंडर भरवाना, होली या दिवाली की खरीदारी करना या रोज का बाज़ार करना। घर में रुद्राभिषेक हो या कोई भी आयोजन। कौन आएगा, कौन आया, कहाँ पहुँचा, कोई दिक्कत, सबका समाधान निकाल लेती थी कल्पना। उसका प्रबंधन देख पड़ोसियों के बच्चों को ताने सुनने पड़ जाते। नृत्य, फैशन, मेहंदी, मेकअप कुछ भी हो कल्पना सबकी मास्टर थी। कुछ ही पल में सबके साथ घुल सबकी अपनी हो जाती थी कल्पना। पर शादी के बाद से उसका व्यक्तित्व, प्रबन्धन, कौशल, व्यवहार सब छिड़ हो गये। जगदम्बिका की इर्ष्या और तुनकमिजाजी स्वभाव ने कल्पना को अंदर ही अंदर जैसे तोड़ दिया हो। जगदम्बिका को केशव प्रसाद ने भी उसके व्यवहार को लेकर बहुत समझाया पर कोई हल नहीं निकला। केशव प्रसाद को भी सिर्फ जगदम्बिका के क्रोध को ही सहना पड़ा। कभी कभी एक दो दिन भूखे भी गुजारना पड़ा। यदि कल्पना पूछ भी दे खाने के लिए तो जगदम्बिका चीख पड़ती। फिर घंटों कलह घर में तांडव करने लगता।
कल्पना जब से ससुराल में आई तब से शायद ही कभी ऐसा हुआ हो कि उसकी आँखें सुखी हों। कभी धर्मेंद्र के ताने तो कभी जगदम्बिका के जिह्वा से निकले अंगार, उसे चोटिल कर जाते। कल्पना उस कमरे में कैद थी। वहां कोई रोशनदान भी नहीं था कि उजाले से मुलाकात हो। आंगन में दोपहर के बारह बजे पन्द्रह मिनट के लिए धूप आती तो वह अपनी जिंदगी की उज्ज्वल छटा से रूबरू होती। ख्यालों में खो जाती। गोदवालिया की वो भीड़। रथयात्रा, दुर्गा कुंड और विजया चौराहा से गुजरती उसकी स्कूटी। हर मंगल और शनिवार को संकट मोचन मंदिर में हनुमान चालीसा पढ़ना और बन्दरों को लड्डू खिलाना। कई बार तो बंदर लड्डू का पूरा डिब्बा भी छीन ले जाते। पर बीती बातें अब स्मरणों में धूमिल होती जा रही थीं और दिमाग पर जो परत चढ़ रही थीं वह असहनीय पीड़ा की हैं, जिसे सहना नियति बन चुकी है।
कल्पना अपने से ही कभी कभी बातें करतीं। घर में कोई बात नहीं करता। मानो वह काले पानी की सजा काट रही हो। बेड़ियां भले लोहे की न हों पर थी परिवार की, मर्यादा की और झूठी नैतिकता व आदर्श की। जहां इनका पालन सिर्फ कल्पना को करना था। रोज के ताने और घृणा पूर्ण बातें उसे छलनी करतीं। जगदम्बिका, केशव प्रसाद, जीतेन्द्र, सौम्या और धर्मेंद्र के लिए कोई नियम कायदा नहीं था। मानो कल्पना कोई बागी हो। या फिरंगी। ससुराली चाहें तो जलियावाला बाग़ कांड करके भी मेडल ले लें और कल्पना को फाँसी मुकर्रर करा दें। कल्पना उस जेल में कैद थी जहाँ समाज घुटने टेक चुका था। बेरहमी थानेदार थी। सच्चाई चोरी की सजा काट रही थी। ईमानदारी अपनी बेगुनाही के लिए थानेदार के तलवे चाटने को मजबूर थी। अच्छाई सजा के इंतजार में सलाखों के पीछे चुपचाप खड़ी थी। कल्पना का दिमाग सवाल जवाब करना बंद कर रहा था। वो सोच रही थी। खुद से कुछ पूछ रही थी, अपने से बात कर रही थी। मैं कौन हूँ। क्या हूँ। क्यों हूँ। इससे बेहतर मृत्यु को क्यों न समझूँ। पर कायरता मेरे जीवन का हिस्सा नहीं बन सकता। यदि यह दशा आयी तो इन मूर्खों को सबक सिखाऊंगी। समाज को जगाऊंगी। लड़कियों के लिए रास्ता तैयार करूँगी। वो डरें नहीं, लड़ें दहेज लोभियों से, लालचियों से, धोखेबाजों से, जाहिलों से। हारें नहीं, इन्हें सबक सिखाएं, ताकि और कोई किसी अन्य कल्पना को परेशान न कर सके। कल्पना के जीवन में यह आशा निराशा का ज्वार भाटा आता जाता रहा और दो महीने कट गए। कल्पना एक सुबह सबके लिए चाय बना रही थी। उसने अखबार उठा नजर फिरायी। नोटबन्दी को लेकर पक्ष विपक्ष की नोंक झोक से पहला पन्ना पटा पड़ा था। कल्पना ने उस पन्ने को बिना पढ़े आगे के पन्ने उलाटने शुरू कर दिए। वो सोच रही थी, इस नोटबन्दी का क्या पता हमें क्या फायदा हो। यह तो भगवान जाने। तभी उसकी नज़र एसएससी की खबर पर पड़ी। सीजीएल के अभ्यर्थियों की रुकी ज्वाइनिंग को कोर्ट ने बहाल करने की मंजूरी दे दी थी। इसी महीने सरकार को ज्वाइनिंग देनी है। कल्पना की खुशियों का कोई ठिकाना न था। क्योंकि यह परीक्षा उसने भी पास कर रखी थी। पर फिर वो सहम गई। सासु माँ और वो क्या इजाज़त देंगे, ज्वाइनिंग के लिए। क्या मैं अपने नाम के अनुरूप कभी वास्तविक नहीं बन पाऊंगी। वास्तव में मैं सिर्फ कल्पना हूँ। खामखा अपने वजूद की ख़्वाहिश में अपने आप को गुमराह कर रही हूँ। कल्पना ख्यालों में खो गयी। मैं कल्पना हूँ। कोरी कल्पना। मिथ्या के काफी करीब।मेरे अस्तित्व को लेकर शीतल सभागारों में स्नेहपूर्ण चर्चा होती है। कोई मेरे अस्तित्व का श्रृंगार कर करतल ध्वनि से अपनी आंखों के मैल को धोता है। कोई कल्पनाओं के सागर से समाज और परिवार को नमक खिलाता है। वफ़ा और वफादारी का। पर कल्पना वास्तविकता नहीं हो सकती। पुरुष के साथ ही मेरा भी जन्म हुआ। पर मेरा व्यक्तित्व और मेरे अधिकार आज भी शोध का विषय है। मेरा मूल और मूल्य दोनों अभी निर्धारित होने हैं। मेरा व्यक्तित्व और विचार उपयोग में लाने के लिए अभी अध्ययन हो रहा है। कई संस्थान मेरे लिए यानी कल्पना को वास्तविक रूप देने में जुटे हैं। पर मैं तरल तरंग हूँ। जिसकी रचना उथले हिस्से पर लहराने के लिए है न कि स्थायी व्यवहार के लिए। मैं उतनी ही वास्तविक हूँ जितना क्षितिज। दूर से देखने वाला मेरे वजूद को वास्तविक समझता है पर अपने ज़ेहन में नहीं। सच कहूं तो मैं कल्पनाओं के इस वायुमण्डल में ऑक्सीजन तो हूँ पर प्रदूषण पर विराम कौन लगाना चाहता है यहाँ। अब लोग कहने लगे हैं हवा दूषित है। उन्होंने कुछ नहीं किया। लोगों के मन को रोमांचित करने वाली कल्पना हूँ मैं। खुली और बंद आँखों की स्वप्निल कल्पना हूँ मैं। झरोखों से गर्म तपिस देने वाली कल्पना हूँ मैं। पर्दे में लिपटी झुंझलाहट भरी कल्पना हूँ मैं। किसी की कलाई तो किसी का सिरमौर बन केश सी काली कल्पना हूँ मैं। घर और राह से लेकर मानव संस्थान तक मात्र कल्पना हूँ मैं। कल्पनाओं का प्रयोगशाला हूँ मैं। 21वीं सदी में भी अस्तित्व की तलाश में भटकती एक कल्पना हूँ मैं। कल्पना हूँ मैं।
तभी धर्मेद्र जम्हाई लेते पहुँचता है। बड़े रोबदार लहज़े में कहता है। ह भई! चाय बनी। धर्मेंद्र की आवाज सुन कल्पना वास्तविक दुनिया में पहुँच जी कहती है। जी अभी लायी चाय। और कल्पना यह बोलते हुए चाय छानने लगती है। धर्मेंद्र भी पास आ जाता है किचन में चाय लेने। कल्पना को लगा सुबह का वक्त है। सबका मूड अच्छा है। बता देती हूँ। शाम तक न जाने क्या सत्यानाश हो जाये। कल्पना दबी सहमी आवाज में बोली, वो मेरा एसएससी सीजीएल में हो गया है। इसी महीने ज्वाइनिंग है। धर्मेंद्र ने हूँ कहा और वहां से चला गया। कल्पना खुश थी चलो कुछ नहीं बोले यानी मान गए।
धर्मेंद्र वहाँ से सीधे जगदम्बिका के पास पहुँचा और बोला। माँ! वो कल्पना का सरकारी नौकरी में चयन हो गया है। मुझे बहला रही थी अभी कि नौकरी की इजाज़त दे दूं। मैंने साफ कह दिया, माँ से पूछ लो। तो वो नाराज़ हो बोली शादी आपसे हुई है या माँ से। माँ यहाँ क्या अनुभव रखतीं हैं जो बताएंगीं। नौकरी करूँगी तो आप लोगों का ही भला होगा। जगदम्बिका अपने क्रोध को रोक नहीं पाई और चिल्लाते हुए कल्पना के पास पहुंची। हाँ बोलो, क्या दिक्कत है तुम्हें इस घर में। खाना पानी नहीं मिलता। कोई मारता पिटता है। क्यों हमारी नाक कटवाना चाहती हो। अपने कमरे में रहो और अपना परिवार सम्भालो। मैं तो तुम्हारी नज़र में मूर्ख हूँ। मुझे नालायक़ समझो या समझदार, ख़बरदार जो नौकरी के बारे में सोची। हमें तुम्हारी कमाई नहीं खानी। मोहल्ले में हमें नीचा दिखाना चाहती है। हम लोगों से हमेशा उल्टा चलती है। बदनाम करके छोड़ेगी। ख़रदार जो नौकरी की बात फिर की अब। धर्मेंद का कहीं न कहीं हो ही जाएगा। उसके बाद तुम दोनों अपना घर बार देखना। दोनों भाइयों के परिवार के लिए दो तले बना दिये हैं। फिर हमसे कोई मतलब नहीं रहेगा। घर की खुशियां न खाओ। ख़ुद भी चैन से रहो और हमें भी रहने दो। सुबह ही सुबह तांडव शुरू करवा देती है घर में। कल्पना को गालियां देतीं हुयी जगदम्बिका कमरे में चली गयीं। शाम तक घर का महौल गरम रहा। कल्पना कांपते शरीर के साथ दिल दिमाग में क्रोध और सदमा लिए अपने दस बाई बारह के कमरे में बैठ दुख को आँशु बना अपनी जिंदगी को कोश रही थी।
कल्पना जगदम्बिका के व्यवहार से उतना आहत नहीं थी, क्योंकि इससे थोड़ा ज्यादा या कम जगदम्बिका उसे रोज़ कोसती थी। इतना अपमान उसकी ज़िन्दगी का हिस्सा हो चुका था। ससुराल में तिरस्कार ने उसका स्वागत किया। घृणा और द्वेष ने उसे यहाँ सजाया। दया ने जीने की राह बनाई। बेचारगी भाग्य बनी। पर कल्पना फिर भी खुश थी। एक दो बार कल्पना ने कपनी माँ चैत्रा को फोन कर अपनी दशा भी बताई। दोनों खूब रोये। माँ चिन्ता में बीमार पड़ गयी। पापा शैलेन्द्र भी बुझे बुझे से रहने लगे। कृतिका ने कई बार शैलेन्द्र को अकेले में रोता भी देखा। उसने यह बात कल्पना को बता दी। इसके बाद कल्पना ने यह फैसला लिया कि माँ परेशान न हों, पापा को पछतावा न हो इसके लिए वह सब सह चुप रहेगी। जगदम्बिका के जाने के बाद धर्मेंद आया और कल्पना को घूरते हुए बोला, जैसी हो जिस तरह हो उसमें खुश रहो। ज्यादा उड़ो नहीं। समझी। और वह आंखे तरेरता हुआ छत पर चला गया। कल्पना निःशब्द हो पथराई सी आँख से उसे एकटक देखती रह गई। वो सोच रही थी क्या पति ऐसा ही होता है। पति का अर्थ तो प्रेरणा उसे बताया गया था। उसने सुना था पति साथी बन जीवन में सुख शांति लाता है। सहयोगी की भूमिका निभाता है। मित्र बन रिश्तों को शहद सा मधुर बनाता है। प्रेमी बन जीवन को स्वर्ग सा सुन्दर स्वरूप देता है। दोस्ती की मिसाल कायम कर शक्ति और सामर्थ्य बनता है। वह आत्मा होता है। वो पत्नी की जिंदगी में आने वाली हर बाँधा को दूर कर मार्ग प्रशस्त करता है। पर ये क्या। धर्मेंद्र ऐसा कैसे कर सकते हैं। धोखा, छल, फरेब, अमानवीयता, अशिष्टता ये किसी पति परमेश्वर के तो गुण नहीं हो सकते। उसे सम्मान देना क्या मेरी बाध्यता है या डर। उसके साथ रहना, जीवन जीना मेरी विवषता तो नहीं हो सकती। मेरी शिक्षा, ज्ञान और बौद्धिकता गुलामी करने के लिए तो नहीं ईस्वर ने प्रदान की होंगी। मायके में सैकड़ों लोगों के साथ पच्चीस वर्ष खुशी खुशी तालमेल के साथ जी ली, पर यहाँ रिश्तों में कोई समीकरण क्यों नहीं बैठ पा रहा है। आक्रोश की ज्वाला क्यों यहां धधक रही है। क्या मेरे में ही कोई दोष है, जो मैं दूर नहीं कर पा रही। जिसे मैं समझ नहीं पा रही। नहीं, नहीं। ऐसा नहीं हो सकता। कल्पना खुद को ढांढ़स देते हुए रसोई में चली गई। दोपहर में चैत्रा का फोन आने पर कल्पना जगी और फोन उठा भारी आवाज़ में बोली, हाँ माँ। चैत्रा ने कल्पना की आवाज़ से उसके दर्द को पहचान लिया और बोली। क्या हुआ बेटा। तबियत तो ठीक है ना। हाँ माँ, कह कल्पना ने आवाज़ बदली। वो माँ अभी तुरन्त सोई थी न। फोन की आवाज़ सुन जग गयी। इसीलिए अभी ऐसी भारी आवाज आयी। चैत्रा इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रही थी। बेटा सब ठीक है न। धर्मेंद्र जी ठीक है न। चैत्रा ने पूछा। कल्पना जवाब क्या दे समझ नहीं पा रही थी। उसका जी तो कर रहा था ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते हुए रोये। उसके अंदर दर्द और आँसुओं का सैलाब उमड़ रहा था। वो खुद को संभालते हुए बोली, हाँ माँ सब ठीक है। आज ससुर जी मेरे खाने की तारीफ कर रहे थे। सासु माँ कह रहीं थीं मेरे बाद कल्पना ही घर को संभालेगी। मेरी परीक्षा में कल्पना पास हो गयी है। और माँ, वो भी कह रहे थे कि फॉर्म भरा करो। तुम पढ़ने में अच्छी हो। घबराना नहीं। माँ यहाँ सब अच्छा है। अब वो चोरी चुपके आके एक दो मिनट बात भी करते हैं। शायद घर वालों से शर्माते हैं इसीलिये साथ नहीं रहते। माँ, सब ठीक है। कोई कुछ नहीं बोलता माँ। मेरे पहनावे, मेरी समझ और खाने की सब तारीफ करते हैं। सब ठीक है माँ। सबमें बदलाव आया है। सब अब मानने लगे हैं। सब ठीक है, माँ। माँ। कहते हुए कल्पना फोन काटकर जोर जोर से रोने लगी। कोई बाहर सुन न ले कभी हथेली तो कभी साड़ी का पल्लू ठूंस आंशुओं के क्रंदन से आलोम विलोम करने लगी। इधर चैत्रा की हृदय और रक्त की गति शरीर का साथ नहीं दे रही थी। चैत्रा ने घबराहट का पसीना पोछ अपनी आँखों की नमी को छुपा शैलेंद्र से गुहार लगायी। सुनते हैं, कल्पना को डेढ़ साल हो गए विदाई करा लाइये न। शैलेंद्र चैत्रा का चेहरा पढ़ बोले, कई बार तो उसके सास ससुर से बोला पर वे दिन ही नहीं रखते। क्या करूँ कुछ समझ ही नहीं आता। उन लोगों के दिमाग का अंदाज़ा लगाना काफी कठिन है। फिर भी मैं... तभी चैत्रा ने शैलेंद्र को रोक अपनी बात रखी। वहाँ जाइये और किसी तरह उन्हें मनाकर, विनती कर कल्पना की विदाई का दिन राखवाईये। शैलेंद्र ने लम्बी सांस ले कहा, कल ही चला जाता हूँ।
अगली सुबह शैलेन्द्र कल्पना के ससुराल पहुँच केशव प्रसाद से विदाई की बात रखते हैं। केशव प्रसाद अभी कुछ बोलते उससे पहले ही जगदम्बिका सामने खड़ी हो बोलीं। घर में देख रहे हैं कि काम करने वाला कोई नहीं है। उसके जाने के बाद यहां कौन सम्भालेगा। बड़ी बहू लखनऊ है। ऐसे में कैसे विदाई कर दें। तभी केशव प्रसाद बोले, ठीक है। दस दिन चली जाए। डेढ़ साल हो गया जरा उसका मन भी बहल जाएगा। काफी देर चर्चा के बाद जगदम्बिका एक हफ्ते पर राजी हुईं।
कल्पना को शैलेन्द्र अगले सप्ताह अपने घर लाते हैं। कल्पना इस खुले आसमान और धूप को देख खुश थी। मानों किसी को आजीवन कारावास की सजा के बीच कुछ दिन की बेल मिला हो। वाराणसी की सड़कों की शोर जगदम्बिका की चिल्लाहट से आज खूबसूरत लग रही थी। कल्पना ससुराल की बातें भूल सुनहरे आज और कल में खो गयी थी। उसकी आँखें हर इंसान और वस्तु को ऐसे निहार रहीं थीं मानों बहुत दिन बाद दो मित्र मिलें हों और दुनियाँ को भुलाकर उमंगों के अहसास में खो जाना चाहतें हों। कल्पना के आने की ख़बर सुन स्नेहलता, उर्मिला और सृष्टि ने वहीं अड्डा जमा लिया। सुबह ही आ जातीं तीनों और कल्पना व कृतिका के साथ पूरा दिन बिताती। यह सप्ताह ऐसे बीता मानों एक दिन का ही हफ़्ता हो। सातवें दिन जब कल्पना जगी तो माँ ने बताया कि वो आज धर्मेंद्र आने वाले हैं।


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