तूं दुर्गा, लक्ष्‍मी, सती, चंडी, कोई देवी न बन























तूं दुर्गा, लक्ष्‍मी, सती, चंडी, कोई देवी न बन
बनना है तो सिर्फ इंसान बन।।
भूल और गलती के अधिकगर से खुद को वंचित न कर
घर को मत बना मंदिर और गर्भगृह की मूरत न बन।।
इंसान है और गलतियां तुझसे भी होंगी
माफी के लिए सिर्फ और सिर्फ इंसान बन।।
दया
, धर्म, संस्‍कृति और सभ्‍यता की पोषक न बन
मानवता की परिधि में गतिमान विज्ञान बन।।
घर की दहलीज की लाज और लज्‍जा न बन
राजनीति की पुरोधा और हर चौपाल की प्रधान बन।।
बड़ा या विशाल कद वाली अनोखी नारी न बन
इंसानों जैसी
, इंसानों में बराबर के अधिकार वाली इंसान बन।।
तोहफा
, छूट, फ्री और खास दिवस में न सिमट
हक-अधिकार को शिक्षा और बराबरी से ले सशक्‍त बन।।
न डर
, आगे बढ़, तेरा भी ये पूरा जहां है
अधिकारों को अब न मांग
, हक से अपने अधीन कर।।
देवी न बन
, बनना है तो सिर्फ इंसान बन।।

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मुझे चांद की तरह तुम पसंद नहीं हो
न फूलों की तरह मुलायम
, न कठोर मूरत।।
मूझे मक्‍खन
, मलाइ और दूध सी तुम पसंद नहीं हो
न कोमल
, मासूम, लाचार या दया की भिक्षु।।
मुझे तरल
, बहती या हवा सी तुम मचलती पसंद नहीं हो
न आंगन की शोभा, न सुंदरता का कृतिम धोखा।।
मुझे तुम इठलाती
, मचलती, शर्माती लज्‍जा वाली पसंद नहीं हो
न लाज का गहना
, न नजरें, न आंचल, न सजी-संवरी कन्‍या।
हां मुझे तुम पसंद हो
, वैसे ही जैसे ये पेड़, पौधे, सूरज, चांद
ये इंसान
, जानवर, प्रकृति, नदी और वसंत का स्‍वतंत्र स्‍वरूप।
मुझे तुम तुम जैसी ही पसंद हो।
मुझे तुम सीता
, फातिमा, मारिया जैसी ही पसंद हो।
मुझे तुम मेरे आइने में बने अश्‍क सी ही पसंद हो।
मुझे तुम मेरे दिल
, दिमाग, चाहत और सांसों की तरह ही पसंद हो।
मुझे तुम मुझ जैसी ही पसंद हो।
मुझे तुम तुम जैसी ही पसंद हो।



- कुमारी श्रुति 

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