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जिन्दगी को चिता बना जाते हैं।

चंद गुजरे हुए पल, रूला जाते हैं। वो फिर न कभी लौटेगे जता जाते हैं। रिश्तोंे का विलगाव दिल को जला जाते हैं। अपने ही पराएं हैं बता जाते हैं। सभी कुछ दशकों में चलें जाएंगे छोड़कर। कुछ लोग पलभर में ही हमें छोड़ तड़पा जाते हैं। सपनों सा लगने वाले ये खुशनुमे अपने ही हैं। पर दूर होकर रूह में आग लगा जाते हैं। रिश्तों की भीड़ में हम एक अपना बना लेते हैं। पर उसे जता कर भी जता नहीं पाते और जिन्दगी को चिता बना जाते हैं।

क्यों

 हम प्यार करके भी मोहब्बत से महरूम क्यों रहते हैं। हम अपन पूरा विश्वास देकर भी विश्वासघाती क्यों कहलाते हैं। हम रोते है जिसके लिए उसी से मूर्ख क्यों बनते हैं। हम जिसके लिए कुर्बान कर देते हैं जिंदगी, उसी से आघात क्यों पाते हैं। हम होश में या बेहाशी में जिसे याद करते हैं, उसी की आंखों की किरकिरी क्यों बन जाते हैं। हम जिसे अपनी पूरी जिंदगी दे चुके हैं, उसी से सुनापन क्यों पाते हैं। हम उसको जिसे खुशियां देते हैं, उसी से गम  क्यों पाते हैं। हम जिसके रूठने पर सबसे ज्यादा परेशान होते हैं, वही हमसे क्यों रूठ जाते हैं। हम जिनके बिना खुद को तन्हां समझते हैं, वही हमें अकेला क्यों कर जाते हैं। हम बड़े बेफिक्री से जिसे अपना कहीं भी, कभी भी कह देते हैं, वही इससे परेशान क्यों होते हैं। हम जिन्हें खुदा कहते हैं, वही हमें कष्टों की माला क्यों पहना जाते हैं। हम जिसे सपनों के उजाले में हमेंशा करीब पाते हैं, वहीं रोशनी में हमसे दूर क्यों होते हैं। हम जिसे अपना कह इतराते हैं, वहीं हमसे कतराते क्यूं हैं। हम तो सिर्फ प्यार करते हैं, न जाने ऐसे में हम क्या गुनाह करते हैं।

प्यार गुनाह होता है

कभी मालूम ही न चला कि प्यार गुनाह होता है बचपन से सभी अपने ने मुहब्बत का पाठ पढ़ाया धर्म हो, या देश दुनिया के रिश्तों की बात हर जगह सबने यही सिखाया कर बैठा गुनाह तो सबने तिरछी नजरों से सिखाया प्रेम, सौहार्द, स्नेह, ममता, इश्क, कविताओं और कहावतों की बाते हैं कर लिये तो मर जाओंगे, नहीं तो मारे जाओगे, अब समझ नहीं आता कि किस ओर जाऊं आगे एक काली राज है, तो पिछे तेजाब सी जलन बहुत खामोश सी हो गई है अब जिन्दगी कभी मालूम ही नहीं चला कि प्यार गुनाह होता है।

जुनूने इश्क

जुनूने इश्क है इतना की.. दुनिया में कोहराम मचाने का दम रखते हैं। हौसलों में दम है इतना की.. हर हवा का रुख अपनी तरफ करने का दम रखते हैं। चांद, तारे, दरिया क्या.. तेरे लिए खुदा को भी झुकाने का दम रखते हैं। अभी आपने हमें जाना कहां है.. हम नदिया किनारे रेत पर, रेत से, रेत का महल बनाने का दम रखते हैं।  

दिल

आज दिल ने कहा, जोर जोर से चिल्लाकर बातें कर .... नही तो कोई तेरी धडकनों का दर्दे अह्शाश सुन लेगा.... आज आँखों ने कहा, लबो को चुप न रहने देना.... नहीं तो कोई तेरी आँखों के आंसू पढ़ लेगा.....

खामोंश

खामोंश इन आंखों को कोई चेहरा दे दे.. मेरी रूकी सांसों को कोई आवाज दे दे.. मेरे कानों के सन्नाटे को कोई धुन दे दे.. मेरी जुबान को अपने प्यार का अहसास दे दे.. मेरी त्वचा की संवेदना को सनसनाहट दे दे.. मैं बैठा हूं तेरी चाहत को नब्जों में सजोए.. मेरी इश्क को खुदा की शक्द दे दे..

चाहत

हौसलों में है फौलाद की ताकत. . . कभी आजमाकर तो देखो। चाहतों में है दरिया सी राहत. . . कभी आजमाकर तो देखों। मेरी चुप्पी, मेरी कमजोरी नहीं. . . कभी आजमाकर तो देखों। मैं एक परवाना हूं, मौत से प्यार करता हूं और प्यार में ही मर जाता हूं। जब चाहे हमें आजमाकर तुम देखो।  

adhoora prem

मैंने रिश्ते का वो रंग भी देखा था, जिसमे मेरा सम्मान,  उसका अभिमान होता था... मैंने उनके उन तेवरों को भी देखा था ,, जिसमे मेरा अपमान, उनका गुमान होता था .... मैंने रूठने मनाने का वो दौर भी देखा था ,  जिसमे मेरी आँखे नम, तो उनकी आँखों को बरसते पाया था ..... मैंने खुशियों का वो माहौल भी देखा था, जिसमे वो मुझमे, तो मैंने उनकी मुस्कुराहट को अपना बनाया था.... मैंने अपने दर्द पर उन्हें कराहते भी देखा था, जिसमे wओ मेरी लबो को चुप करा, खुद मरने की बाते करते थे .... मैंने अपने ऊपर उठती अंगुलियों को उन्हें मरोड़ते भी देखा था, जिसमे वो सामने वाले को समझा, मेरी शान की इबादत लिखा करते थे... मैंने उन्हें मेरे मरने की दुआ करते भी देखा था, जिनमे वो मुझे वो कठपुतली समझ नेश्तानाबूत करने की बात कहते थे ... मैंने फिर भी अपने प्यार को जिन्दा रखा है , जिससे लोगो को यह न कहना पड़े की हमारा प्यार झूठा था ...... ००००००००००००००००००० छड छड तुझे पाने की दुआ करते है .... कड कड क्या हर जर्रे से तेरे मिलाप की इल्तजा करते है .....        

koi apna nhi...

छः दसक का साथ मिला था ... चला काफिले संग... कुछ अपने थे, कुछ बेगाने ... था यह रिश्तो का द्वंद्व.... इमान की कुर्सी पर बैठे थे, भौतिकता के रंग... इंसानियत की राह पर चलकर मैंने भी किये थे कुछ अनुबंध .... सामाजिकता का पाठ पढ़,, जब देखा मानवता को हो गया बिलकुल दंग.... बचपन में जब मुठठी खुली, तभी हो गया था मानवता का अंत.... दसको बाद आ गया था, जीवन का जब अंत... सब अपने पावक लिए खड़े थे, चारो तरफ फैला था रंगा रंग... मनो कोई इंसानियत नही मरी थी, मारा था कला दंस  

ek lmha mera bhi

हर लम्हे में हमने भी अपना एक लम्हा खोजना चाहा. ये वक्त ये फिजा क्या चाहती है समझना चाहा... हर अपने का अपना बन अपनापन खोजना चाहा... अपनों पर खुद को लूटा , मुहब्बत लूटना चाहा .... हर महफ़िल, हर डगर, हर जलसे में खुद को खोजना चाहा... इन्सान तो बहूत दिखे दोस्त.... पर इंसानियत का जनाजा सजा पाया .....