koi apna nhi...

छः दसक का साथ मिला था ... चला काफिले संग...
कुछ अपने थे, कुछ बेगाने ... था यह रिश्तो का द्वंद्व....
इमान की कुर्सी पर बैठे थे, भौतिकता के रंग...
इंसानियत की राह पर चलकर मैंने भी किये थे कुछ अनुबंध ....
सामाजिकता का पाठ पढ़,, जब देखा मानवता को हो गया बिलकुल दंग....
बचपन में जब मुठठी खुली, तभी हो गया था मानवता का अंत....
दसको बाद आ गया था, जीवन का जब अंत...
सब अपने पावक लिए खड़े थे, चारो तरफ फैला था रंगा रंग...
मनो कोई इंसानियत नही मरी थी, मारा था कला दंस
 

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पतझड़ सा मैं बिखर जाऊंगा

सही-गलत part 1

प्रेस वहीं जो सिलवटों को प्‍यार से दूर करे