ये कहां आ गए हम



बचपन में हमें ‘नैतिक शिक्षा’ विषय के तौर पर पढ़ाया जाता है, लेकिन स्नातक के आगाज के साथ ही इस शिक्षा का अंत हो जाता है। शायद शिक्षा विदों की यह धारणा है कि अब इस शिक्षा के तहत पढ़ाए गए ज्ञान के अनुप्रयोग का वक्त आ गया है। ऐसे में समाज स्नातक के विद्यार्थियों से यह आशा रखने लगती है कि वह भाषा, बोली और व्वहार में अपने नैतिक ज्ञान को व्यवहारिक रूप देकर समाज के विकास में सहयोग प्रदान करेगा। लेकिन कष्ट तब होता है जब प्रोढ़ उम्र के व्यक्ति या कर्मचारी दायित्वपूर्ण एवं बौद्धिक जगहों पर आसीन हो इन गुणों से परे व्यवहार करते हैं और अपने को अहम की प्रतिमूर्ति के तौर पर अवस्थित करते हुए अन्य को निम्न समझने का भ्रम पाल लेते हैं। ऐसा ही व्यहार अक्सर हम अपने आस-पास में भी देखते हैं। जैसे मेरे एक सीनियर ने मेरे कार्य पर प्रश्न चिन्ह लगाया। ऐसे में मुझे लगता है कि वह मेरे कार्य पर नहीं, बल्कि संस्था के प्रबंधक और प्रबंधकीय स्थिति पर ही सवाल खड़े कर रहे थे। एक संस्था में हर व्यक्ति का अपना स्वतंत्र दिखने वाला कार्य होता है, जो एक दूसरे के सहयोग और समंजस्य से पूर्ण होता है। दूसरी बात कि कई बार वरिष्ठ कर्मचारी यह कहते नजर आ जाते हैं कि आपने संस्था के लिए क्या किया? ऐसे में सबसे पहले यह जानना जरूरी हो जाता है कि आप क्या करते हैं और आपके कार्य स्थान पर आपकी खुद की कितनी व्यक्तिगत भूमिका होती है और उसमें कितना सहयोग और अनुकंपा अन्य का है। कुछ भी बोलने से पहले स्वयं का एक बार जरूर मुल्यांकन कर लेना चाहिए। मालूम हो कि हमारा व्यवहार और भाषा हमें आगे बढ़ाती है तथा समाज में एक अच्छा मुकाम देती है। वर्तमान ही भविष्य है, यह भ्रम  कभी किसी को नहीं पालना चाहिए। वक्त बदलता है और ऐसे में वहीं कामयाब होते हैं जो सबको एक साथ लेकर चलते हैं। अपने से पहले उनकी भावनाओं को समझते हैं। यदि सामने वाले से कोई नकारात्मक वाक्य आता है, तो उससे आपके आत्म सम्मान पर कोई प्रभाव  नहीं पड़ता, बल्कि उससे सामने वाले की मानसिक दशा मालूम चलती है। जिसे समझकर वरिष्ठ कर्मचारियों को हल करने पर विचार करना चाहिए, न कि उसपर हावी हो और परेशानी खड़ी करनी चाहिए। हर कर्मचारी को यह समझना चाहिए कि प्रत्येक की अपनी एक भूमिका है और सबके सहयोग से एक कंपनी चलती है। यहां आदेश नहीं, सहयोगात्मक भाषा का प्रयोग होता है। समाज में यदि हमें कोई उत्तरदायित्व पूर्ण पद मिला है, तो इसका अर्थ यह है कि हमारी जिम्मेदारी सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है। सबकी भावनाओं को समझ कार्य करना एवं कराना और सबसे सहयोग प्राप्त करना महत्वपूर्ण हो जाता है। हमारी भाषा, बोली और व्यवहार ही हमें समाज में एक अच्छा मुकाम दिलाता है। दायित्व का अर्थ शक्ति नहीं, बल्कि सेवा है। लेकिन दुख की बात है कि आज समाज का बौद्धिक वर्ग ही इसे भूल गया है। यही वजह है कि समाज में हर तरफ त्राहि माम्! त्राहि माम्! त्राहि माम्! की आवज गूंज रही है और सभी बहरों की तरह अपने हित साधने और स्वसुख में लिप्त हैं।

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