क्या करें कि न करें

आदित्य देव पांडेय

हमारी जिंदगी में जज्बातों की कदर उतनी ही है जितने में हमारे दिमाग की संतुष्टि। इससे ज्यादा यदि जज्बात हम पर कोई उड़ेलता है तो हम घबराने लगते हैं और उससे भागने लगते हैं। और यदि उससे कम जज्बात हम परोसते हैं तो रिश्ते में कभी गर्माहट आती ही नहीं है। ऐसे में यह निर्धारण करना कि किनती मात्रा में जज्बातों को सामने वाले तक पहुंचाना है। काफी कठिन है। लेकिन, एक बात तो तय है कि वर्तमान में मानवीय भावनाओं का स्पंदन और भावों का बहाव कब और कहां बहक जाए उसके स्वामी को भी नहीं पता होता। वह लाख अपनी चारित्रिक स्थिति को प्रोढ़ बनाए पर एक वक्त ऐसा आजा है जब वह उसके हाथों से निकल किसी और के उंगलियों के इसारों पर पतंग की तरह घूमने लगता है। वास्तव में उसी दौरान उसका अस्तित्व और संपूर्ण बौद्धिकता इतराने लगती है सामने की उंगलियों के इसारों पर और वह हवाओं में झूम उठता है अपने को एक स्वतंत्र अस्तित्व समझकर। हालांकि यह इतराना ज्यादा देर तक तो नहीं चलता। क्योंकि आस-पड़ोस की कई कन्नियां उस स्वतंत्र अस्तित्व की दुश्मन बन जाती हैं। ऐसे में सबसे अजब बात यह लगती है कि हम उससे अपनी भावनाओं को ज्यादा बता भी नहीं सकते और यदि जताने लगे तो वो हमें छोड़ जाएंगे। यदि शांत और सामान्य जीवन को जीते रहे तो कई कन्न्यिां हैं, जो काट देंगी और लुटेरे हांथ लुटेंगे कम फाड़ेंगे ज्यादा। अजीब है भावनाओं की भावमयी दुनियां जहां कद्र सिर्फ खुद के स्वार्थ की है और कुछ भी नहीं।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

पतझड़ सा मैं बिखर जाऊंगा

यहां पर काल सर्पदोष की शांति का अनुष्‍ठान तुरंत होता है फलित

अकेला हूँ, खामोश हूँ