मैं गुण्डा हूं...

आदित्य देव पाण्डेय

आज एक छात्र नेता मेरे आरामगाह में तशरीफ लाए। जहां उन्होंने अपने मनतव्य रखते हुए यह फरमान जारी किया कि विश्वविद्यालय, महाविद्यालय और वहां के विभागाध्यक्षों की बढ़ती दबंगई से छात्रों का भविष्य अधर में जा रहा है। उनके तानाशाह रवैये के कारण छात्र अपने हित और अधिकार की बात स्पष्ट नहीं कर पा रहे हैं। हालांकि मैं उनकी तेज और आक्रोशित विचारधारा को काट नहीं पा रहा था। इसका अर्थ यह नहीं था कि वह सब सही बोल रहे थे। बल्कि वहां की स्थिति यह थी कि वह किसी और को सुनने के मूड में नहीं थे। वह अपने आक्रोश में यह शायद नहीं समझ पा रहे थे कि वह जो बोल रहे हैं वह बिल्कुल तर्क संगत अथवा सही नहीं है।
    हालांकि भोजन करने के बाद मेरे जेहन में एक बात आई और मैंने उनसे पूछ ही लिया। भाई साहब! एक चीज बताएंगे? उन्होंने बड़ी ही बड़कपन से बोला। हां हां पूछो। मैंने पूछ : दादा! एक लड़का है वह मेरे कुछ मित्रों को परेशान करता है। कहता है...। उन्होंने इतना सुनते ही तपाक से बोला अरे ऐसा कैसे? साला हमसे बड़ा गुण्डा है। कौन है नाम बताओं? मैंने कहा दादा छोड़ो ना। दरअसल, उसका भाई छात्र नेता है और काफी दबंगई है उनकी। उनको भोजन के बाद नींद आ रही थी। लेकिन जैसे ही मैंने उस अज्ञात लड़के के बारे में ऐसे जिक्र किया। उनकी भौंहे तन गई। अरे यार पांडेय जी! क्या बात करते हैैं। वह आक्रोशित होकर बोले : हमसे बड़ा साला यहां पर कौन छात्र नेता और गुण्डा पैदा हो गया, जो हमारे भाइयों को परेशान कर सके। अरे हर नेता को हम जानते हैं यहां के। आप तो बस उस लड़के और उसके भाई का नाम बता दीजिए। मैंने कहा, छोड़िए दादा। दरअसल मैंने अभी यह मामला सलटा दिया है। कभी लगा कि आपकी जरूरत है तो जरूर याद करूंगा। अभी मैं अपनी बात खत्म ही किया था कि एक प्रश्न और उनके दिमाग पर मैंने छोड़ दिए। दादा एक चीज बताए। हां! उन्होंने बोला। मैंने अपनी बात क्रम में जारी रखी। शहर के कई मुहल्लों के नुक्कड़ों और पान-तंबाकू की दुकानों पर आधूनिक विचारधारा से ओतप्रोत युवा गाली गलौच के साथ ही अपने को एक दूसरे से बड़ा गुंडा बदमाश होने का दावा करते हैं। लेकिन हंसी तो तब आती है जब वहां से गुजर रहे खाकी वर्दी को देखते हैं तो चुप हो जाते हैं तथा अपनी घोषणा को भूल जाते हैं। ऐसा क्या है, जो यह युवा अपने को सज्जन तथा ईमानदार व सीधा बोलने में अथवा सत्य आचरण के आधार पर जीने से कतराते हैं। वहीं गुण्डा बोलने में फक्र महसूस करते हैं। और गुण्डई का आधार वह अपने पिता की स्टेटस से लगाते हैं।
    वह थोड़ा गंभीर हो गए और बोले यार पांडेय जी सही बोले तो यह सब लड़के फट्टू होते हैं। एक बार हमारे सामने लाइए सबकी गुंडई हम छुड़वा देंगे। वह बेचारे मेरी जिज्ञासा को अपनी अज्ञान परक ओछी बौद्धिक झमता से बड़ी ही आसानी से उत्तर दे डाले। लेकिन मेरे दिमाग में यह प्रश्न अभी भी घूम रहा था कि वह लड़के अपने को गुंडा कहने में क्यों इतना फक्र महसूस करते हैं तथा इसे दोस्तों के बीच स्टैंडर मार्क समझते हैं। जबकि वही बच्चे अपने घर की दहलीज में घूसते ही अपनी बहन के सामने एक अच्छा भाई और मां के सामने एक मासूम बेटा नजर आते हैं। वास्तव में यह धोखेबाज चरित्र वह क्यों जीते हैं? और जीते भी हैं तो इतनी सहजता से कैसे? यदि वे वास्तव में गुंडे बदमाश हैं तो क्यों नहीं इसे समाज में सहज भाव से बोल देते हैं। चोरी, धोखा और छल से क्या गुंडा बनना! बनना ही है, तो पुलिस स्टेशन में जाकर बोलें कि हां हम इस एरिए के गुंडे हैं। इससे हमें फक्र होता कि चलो किसी हिम्मती ने प्रशासन की व्यवस्था पर प्रश्न तो खड़े किए और उनके डर और खौफनाक प्रबंधन पर प्रहार तो किया है। लेकिन वास्तव में नेता जी सही बोलते हैं कि सभी फट्टू हैं। यहां मुझे नेता जी के पहले के प्रश्न और उग्रता तथा प्रश्न का उत्तर मिल गया था कि छात्र संघ चुनाव के खिलाफ विश्वविद्यालय प्रशासन क्यों रहता है। यह चरित्रवान नेता जो खुलकर अपने को बदमाश और बाहूबली घोषित करते हैं तथा नियमों को धता बताते हुए कुप्रंधन को प्रशासन में स्थापित करते हैं। अपने सेवा भाव को शक्ति मानने लगते हैं। और जिसने उन्हें यह शक्ति दी अपनी व्यवस्था को सुगम और उसके नवीनिकरण के लिए, उसी पर प्रहार कर अपने युवा साथियों को डर से गुलाम बनाने का कार्य करने लगते हैं। ऐसे में इस संघ को कैसे वैधता दी जाए।
    जहां तक मेरा मानना है कि सभ्यता की शुरुआत में समाज का प्रबंधन हर परिवार के पास व्यक्तिगत था। ऐसे में समाज बहुत बिखरा था और सामुहिक उत्सव अथवा विकास कार्य सही से नहीं हो पाते थे। यह सब ध्यान में रखते हुए समाज और ग्राम के लोगों ने अपने बीच से एक व्यक्ति को चुना और उसे उसकी रोजी रोटी, घर की व्यवस्था तथा अन्य जरूरत की चीजों को देकर अपने कार्य उसे सौंप दिए। जो ग्राम सेवक के तौर पर कार्य करता था। वही कालांतर में नेता कहलाने लगे। लेकिन सेवक से जैसे ही यह नेता के स्वरूप में आए। शोषण, अपराध, धोखा, छल, घोटाला लेकर आए। इसके कारक हालांकि आम व्यक्ति ही था। जिसने सेवक को यह रास्ता अपनी चोरी और प्रत्यक्ष व तत्कालिक लाभ के आधार पर सुझाया। अब वही सेवक इस समाज में जाति, धर्म, वर्ग, व्यवस्था और अन्य चीजों में   उलझाकर लूटकांड समायोजित करने में लगे हैं।
    विश्वविद्यालय प्रशासन ने सोचा कि क्यों न इन छात्रों को पढ़ाई के दौरान ही राजनीति के गुण से भी परिचित करा दिया जाए और जो गुण देश और समाज के विकास में उनके किताबी ज्ञान के साथ निर्णय झमतों को विकसित करेगा। विवि प्रबंधन का उद्देश्य था कि इससे छात्रों के अंदर मनोबल का संचार होगा और नेतृत्व छमता में बृद्धि होगी। इससे भविष्य में इन भ्रष्ट नेताओं को समाज से दूर किया जा सकेगा तथा शुद्ध व परिमार्जित स्वरूप में स्वच्छ जनता सेवक यानी राजनेताओं का निर्माण होगा। इन छात्रों में छल, बल और धोखा को बुराई के तौर पर समझाते हुए विश्वविद्यालय ने अपना प्रयास तो शुरू किया, लेकिन यह छात्र नेता भष्मासुर साबित हुए। और यह निर्णय एक भ्रम साबित हुआ और यह छात्र नेता उन नेताओं से भी दस कदम आगे निकल गए। इन्होंने तो अपराध और भ्रष्टाचार को ज्ञान के मंदीर में घंटी के तौर पर स्थापित कर दिया। अब शुद्ध से शुद्ध विचार धारा भी इसकी धुनि सुने बिना आगे नहीं बढ़ पाती। ऐसे में यदि छात्र संघ का विरोध विश्वविद्यालय, महाविद्यालय कर रहे हैं तो कोई गलत नहीं कर रहे हैं। ऐसे भी छात्रों का हित गुरु से ज्यादा यह छात्र नेता तो नहीं ही सोच सकते हैं। रही बात विश्वविद्यालय में प्रबंधन की, तो यहां अपनी बात कोई भी छात्र रख सके इसकी व्यवस्था भी है। फिर इन मध्यस्थों की क्या जरूरत। जब गुरु ही खड़ा है ज्ञान, बुद्धी और व्यस्था में आपके सहयोग के लिए एक मित्र की भांति तो इन बोलंतू गुंडों की जरूरत नहीं है। न ही शिक्षा को और नहीं विद्यार्थी को। आप क्या सोचते हैं?

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