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अकेला हूँ, खामोश हूँ

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अकेला हूँ ,  खामोश हूँ आज खुद से भी दूर हूं। एक अपने की तलाश में आवेश का शिकार हूं। क्रोध से अकाल हूं प्रेम का विकार हूं। अकेला हूं ,  खामोश हूं। आज मन का कंगाल हूं।।    श्वेत पर लगा दाग हूं चमक धोता वैराग हूं। बुझता हुआ राख हूं सूखे जलज का पाक हूं। अकेला हूं ,  खामोश हूं। आज अपराध का उद्गम भाव हूं।। व्याकुलता का राज हूं अनकही कोई बात हूं। उलझी डोरियों की गांठ हूं कटीले पथ का आघात हूं। अकेला हूं ,  खामोश हूं। आज कठोरता का प्रहार हूं।। मैं कुंठा हूं ,  अवसाद हूं दुखों का सरताज हूं। सुख का शत्रु मैं अनंत कष्टों का प्रकार हूं। अकेला हूं ,  खामोश हूं। आज हर व्यक्ति का व्यवहार हूं।।   --------------------***

हर मुस्कुराहट की एक कहानी होती है

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हर मुस्कुराहट की एक कहानी होती है कभी गम ,  दर्द तो कहीं मचलती जवानी होती है। आंखों की चमक में भी एक रवानी होती है आंसुओं को ढंकी पलकें तो रक्‍स ये रूहानी होती है। आवाज के जादू में अश्कों की दास्तां बही है लफ्जों में कभी मोहब्बत तो कभी नफरत मिली है। चांदनी से रोशन जहां में सिर्फ दीवाने नहीं रहते मुखौटा लगाए बहरूपियों की मिलावट बसी है। महफिल में हर शख्स का अक्‍स अलग-अलग है खामोश होकर भी लबों पर शोर दिखी है। अंधेरे धुंध में खोती हैं कहानियां बहुत रकीब के मोहल्ले में प्यार की बरसात हुई है। अब छोड़ दिया अपने परायों से यूं मिलना अकेला दूर हूं तो यार सुकून बहुत है।   -----------------******************  

पहले कहानी में एक आंगन होता था

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पहले कहानी में एक आंगन होता था भाइयों के प्रेम से सुहाना घर सजता था। खेत होते थे ,  खलिहान होता था भाई का हक ही भाई का अरमान होता था। एक कमाई पर टिका पूरा खानदान होता था भाभियों की हंसी से सजा सास का अरमान होता था।    बुजुर्गों की दहाड़ द्वार का श्रृंगार होता था    गायों की सेवा करने वालों का नाम होता था। बुआ-बहनों की खुशियों में ही अभिमान होता था मामा बच्‍चों के लिए बचपन का धाम होता था। जमीं ,  छत ,  बाग ,  घर अब सब संपत्‍ती बन गए आज प्रेम से भरे दिल में दौलत का बाजार सज गया। हक की रोशनी में रिश्‍ते खो गए प्‍यारा आंगन पैसों के जाल में जाने कब जल गया। सरकार की सड़क ने परिवारों को रौंदकर टुकड़ों में फैले लोगों का महल बना दिया। सुना है खुशियों के लिए लोग दर-बदर भटक रहे अपनों के साथ हंसने-बैठने का हक जो गवां दिया।     -------------------**  

माना कि इश्क किसी की जागीर नहीं है

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पर ये अश्कों की तामीर भी नहीं है। बड़े वक्त दिए हैं जो दिल तेरी इबादत में लगे इस तसल्ली का सिला दर्द-ए-जुदाई तो नहीं है। माना न मिलन ,  न निकाह लिखा है मेरी कहानी में तेरे खूबसूरत ख्वाबों पर किसी का लगाम तो नहीं है।   अब बाहों में तेरे रकीब का रूतबा ठहर गया    पर तेरी हंसती अठखेलियों का पूरा हिसाब यहीं है। रब का ये दर इतना भी नहीं जालिम ,  नहीं कातिल रुसवाइयों से रोशन दिल में न अब कोई आरजू बची है।   मेरा रब ,  मेरा सब ,  मेरा तकदीर है वो साहिब अच्छा है राहों में अब न कोई ख्याल तलक है। रब में वो ,  उसमें रब का मेल कब हुआ जाने इस वाकये में अब बड़ा गुस्ताख कौन है।   --------------------****  

इश्‍क को समझ कर तो देखिये

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सदा-सर्वदा पाप से तौला जिसे उस प्रेमी वातावरण में एक पल तो गुजारिये।    दिल के सवालों से घिरे मन में झांककर पछतावे से कभी कुछ पूछकर तो देखिये। कितना मचलता होगा दिल तड़पते मौसम में उस दर्द-ए-एहसास से पटी रूह से रूबरू तो हाईये। चार लोगों के फिजूल बवंडर में क्या घिरना जुदाई के जलजले से सहम के तो देखिये। शब-ए-हिज्र की कराहें महसूस न हो तो सुब्ह-ए-विसाल के हसीन पल को याद कीजिए। इश्क की इबादत में न सिर झुकाया हो कभी   तो कम से कम दुआ में पक्के इमान को सजाइये। इश्‍क के रमजान को सौदा गर बनाया हो तो कलमा पढ़कर एक इफ्तार में जरूर जाइये।     पाक सूरह से जो सज न जाए तेरा मासूम दिल तो आयत के खूबसूरत बगीचे में टहल के देखिये। नम आंखों से कभी अपनी जवानी को सोचना फिर इश्‍क सिर्फ आशिकी नहीं इबादत नजर आएगी।   ------------------------***

फिर इश्‍क से मुलाकात हुई

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एक अरसे बाद इश्क से मुलाकात हुई शिमला में सर्द हवाओं में चंद बात हुई। उनके कांपते बदन पर शॉल ओढ़ाते हुए प्यारे जज्‍बातों से दोबारा मुलाकात हुई। सांसों से निकलते उन गर्म हवाओं में सादे प्यार के बादलों की अंगड़ाई दिखी। मॉल रोड के शोर में खड़े थे मगर उनकी धड़कनों में मिलन की मधुर धुन सुनी। चलते-चलते जो छू गईं उनकी छोटी उंगलियां बड़े कदमों ने फिर धीमे होने की एक धुन चुनी। छोटी राहों पर लंबे जज्बातों को संवारते हुए उनकी बातों में प्यार की बड़ी अंगड़ाई दिखी।   पर्वत से झांकती नजरों में नजारे बहुत थे चाहतों की चादर से ढकी फिर एक प्रेम कहानी दिखी। बातों का सिलसिला गर्म हो रहा था हाथों में हाथ लिए वो अब सामने खड़ी दिखी। पुरानी भूल को सही करने की जिद थी मानों अधरों पर अधर के मेल से संवरती आज वो शाम थी। पछतावा ,  पाप ,  अपराध का बोध छलावा बन गया तब मानों हीर की बाहों में समाहित रांझे की मीत दिखी। ---------------------***