मेरी इश्क से अदावत थी
मेरी इश्क से अदावत थी
मुवक्किल थी तन्हाई।
हाकिम ने पूछा जुदाई क्यों तो
काजी ने दी गुनाहों की दुहाई।
मुंसिफ ने प्यार की परख पे जो पूछा
हर शख्स ने उंगली एक तरफ उठाई।
लाज़िम है कि जालिम नहीं हूं
पर इश्क की गली में घूमने की सजा पाई।
जालिम नहीं जमाना ये संगीन जुर्म था
यकीन का सिला कयामत से चुकाई।
वफा खुदा से कर गया जो
मिली फकीर की दुहाई।
मन्नते तो ना रहीं
पर मिली मसर्रत सी कमाई।
----------------------------------***
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें