जीवन और मृत्यु से बाहर निकलने की अवस्था को मोक्ष कहते हैं। दुनिया में अधिकतर लोग इस मृत्युलोक से प्रेम करते हैैं। जो इससे थोड़े उब जाते हैैं वे स्वर्ग की कल्पना करते हैैं। स्वर्ग में पहुंचने के लिए व्यवहार और उपासना करते हैैं। पर यह भूल जाते हैं कि स्वर्ग या नरक को भोगकर वे पुन: इसी मृत्युलोक में जन्म लेेंगेंं और अपने कर्मों केे आधार पर फिर दुख-सुख के भागी बनेंगे।
ऐसे में इन चक्करों से मुक्ति पाने के लिए सबसे बेहतर मार्ग है मोक्ष। पर यह मोक्ष मिलेगा कैसे।
मिलेगा यहां मोक्ष। इसके लिए सबसे पहले तो आपको खुद को पूर्ण रूप से भगवान को समर्पित करना होगा। आप जो खाते हैं, वह भगवान को भी सौंपना होगा। आप जो आनंद के लिए खेलते हैैं, उसे भगवान के साथ ही खेलना भी होगा। या उनके आनंद का भी ख्याल रखना होगा। आप जैसे कपड़े पहनते व ओढ़ते हैैं, वैसे ही उनका भी ख्याल रखना होगा।
आपको यह समझना होगा कि आपके सामने मौजूद इंसान, जीव व वनस्पति ईश्वर का ही रूप है। उसे उसी तरत का व्यवहार दें जैसा आप भगवान व परमपिता परमेश्वर को देते। आप क्रोध, इर्ष्या, द्वेश का त्याग कर सामने वाले से प्रेम, सौहाद्र और स्नेह रखें।
बलि प्रथा क्या किसी जीव को तनिक भी चोट पहुंचाने से बचे। त्योहार को जीव हत्या व स्वाद के लिए गला रेतने की प्रवृति का त्याग करें। शुद्ध साकाहार का पालन करें।
सामाजिक, सांस्कृतिक, परंपरागत व धार्मिक संस्थाओं की सिखाई व बताई बुराइयों का विरोध करें। नये युव व विचार का निर्माण करें और मानव-जीव-वनस्पति और पृथ्वी के रक्षार्थ अपने को तैयार करें। बुराइयों व अपनों केे ढकोसलोंं से डरे नहीं, उनके सामनें डटें। कुरितियों को दूर करें।
इसके बाद परम शून्य में ध्यान लगाकर खुद को स्थापित करें। ओम का उच्चारण कर अपनी सभी इंद्रियों को एकाग्रचीत करें। इसके बाद खुद को शून्य, फिर परमशून्य, फिर महाशून्य और अंत परम ब्रह्म में खूद को समाहित कर दें। आप अंधेरे ब्रह्मांड में खुद को वीलीन कर महाप्रकाश की तरफ बढ़ें और श्रीचरणों में खुद को ओझल कर दें। ऐसे में आपको निश्चित मोक्ष की प्राप्ति होगी।
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पाप पर विजय की कोई जरूरत ही नहीं है। आप पापी हैैं या आपसे पाप हुआ है, यह कैसे आप निर्धारित कर सकते हैैं। आप जिस परिवार, समाज व राज्य में रहते हैैं और वहां के नीयम व कानून का पालन इमानदारी से करते हैैं तो आप पापी कैसे हो जाएंगे। और यदि आप हत्यारे हैं, दुष्कर्मी व चोर-डकैत हैं तो फिर इसपर विजय की नहीं पश्चाताप व दंड की जरूरत हैैै।
यदि कोई नैतिक अपराध करता है तो उसका हल सिर्फ उसके द्वारा की हुई छति की भरपाई है। इसके अलावा ऐसी भूल व गलती उससे कभी न हो और अन्य से भी यह चूक न हो इसका ख्याल रखने की जरूरत हैैै।
हां, यदि किसी को पश्चाताप करना ही है तो वह किसी विधवाश्रम, वृद्धाश्रम, अनाथालय आदि में आर्थिक और व्यवहारिक सहयोग दे। अपना संपूूूूूर्ण जीवन मानव सेवा में लगा दें। संचय नहीं सेवा को प्राथमिकता दे। इसके पूरे पाप कट जाएंगे। प्राइमरी स्कूलों में कंप्यूटर, पंखे, टेबल, बैग और पाठ्यसामग्री दान कर वह पाप से मुक्ति पा सकता है। स्कूल, कॉलेज, बाजार, बस स्टॉप व स्टेशन पर शीतल व स्वच्छ पेय जल हेतु मशीन लगवाए तो निश्चित पाप से उसे मुक्ति मिलेगी।
कर्म से भाग्य बदलने वाले तो बहुत हैं। कालीदास अपमान केे बाद कर्म से अपना जीवन ही बदल डाले। एपीजे अब्दुल कलाम जैसा गरीब बालक अपने कर्मों के आधार पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतांंत्रिक देश के राष्ट्रपति बनें। एडिशन हार न मान कर्म को प्रमुखता दे महान बनें। अत: यदि इसके उदाहरण यानी किसी बदला या किसी का जीवन ऐसे मेें बदला तो अनेको उदाहरण मिल जाएंगे। साल 2011 में राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबॉल खिलाड़ी रहीं अरुणिमा सिन्हा यह तो वर्तमान में सबसे अच्छी मिसाल हैं। जिन्हें कुछ गुंडों ने ट्रेन से बाहर फेंक दिया। इस हादसे में उनको अपने पैर गांवाने पड़े। फिर भी वह चुप नहीं बैठींं और अपने कर्मों के जोर पर घटना के महज दो साल के अंदर दुनिया की सबसे ऊंची जगह, माउंट एवरेस्ट फतह कर लीं।
अत: एक बात तो तय है कि लोग योग्यता को स्थान देते हैैं। जब आपको अपने कर्मो पर भरोसा हो तो समाज देश व प्रकृति सभी आपकी सहायता कर आपको महान बनाते हैं। पर हमारेे देश में मुस्लिम हैं, गरीब हैं, छोटी जाति के हैं और न जाने क्या क्या कह कुछ मूर्ख लोग अपने कर्मों की कमजोरी को छुपाते हैैं। वह कर्म नहीं करना चाहते बल्कि सुविधाओं का सपना देख सब कुछ पाना चाहते हैं। ऐसे में कर्म करों । कर्म ही आपको महान बनाता हैैै।
पुराणों में यह स्वष्ट इंगित हैै कि शक्ति ही सर्वोपरि हैैं। वही ब्रह्म हैं। वहीं शून्य और अनंत हैं। वहीं कड़ कड़ में विद्यमान हैं। सृदिष्ट का प्रारंभ इसी शक्ति के केंद्र से हुआ हैैै। मां दुर्गा शक्ति का दर्शनीय स्वरूप हैं। क्योंकि शक्ति यानी ब्रह्म का कोई निश्चित स्वरूप नहीं हैैै। शक्ति ही ब्रह्मा, शक्ति ही विष्णु और शक्ति ही महेश हैं। वही संपूर्ण देव, मानव, जीव, पशु पक्षी इत्यादि भी हैं। वही ज्ञान और विज्ञान भी हैं। शक्ति ही आदि हैैै, अनादि है,अंंत है, अखंड है, अभेद्य है, पारदर्शी है, अखेद है, सुबेद है। यही अलख, अगोचर रूप में कड़-कड़ में विद्यमान हैैै। अत: शक्ति सर्वस्व हैंं। सर्वरूप में हैंं। मां भगवती दुर्गा उनका कार्य संपादन हेतु स्वरूप। मांं दुर्गा शक्ति का भाव-विभाव-समभाव रूप में चरितार्थ हैैं। अत: दुर्गा शक्ति का स्वरूप हैैं। दोनों एक हैं।
सबसे पहले तो जान लें कि धर्म यानी मानव कल्याण के व्यवहार का सूत्र स्वरूप हैैै। इसे निम्न पर्यायवाची शब्दों से इंगित करते हैैं। वहीं धर्म के सद्गुण को ही ईश्वर कहते हैैं। यानी जहां सत्य व परोपकार हैै वहां ईश्वर हैं। ऐसे मेें ईश्वर सद व्यवहार के तौर पर हर जगह विद्यमान हैं। यह पृथ्वी प्रकृतिक व व्यवहारिक तौर पर ढेरों विविधताओं से भरी हैैै। कई वर्षों पहले तक तो कई मुल्क एक दूसरे को देखे भी नहीं थे। ऐसे में हर देश, राज्य, क्षेत्र व समाज का अपनाा-अपना जीवन चरित्र था। पर एक जगह पर सभी का मत समान था। वह थी प्राकृतिक शक्ति। अलौकिक शक्ति। इसे सब अपने अपने ढंग से बोलने लगे। अपनी समझ, पहुंच व व्यवस्था के आधार पर पूजने लगे। पर जब जब दुनिया आधुनिकता के रथ पर चढ़़ एक दूसरे में घुलने लगी तो ये सभी एक दूसरे के व्यवहार, पूजा-अर्चना, मंत्र व परंपरा से परिचित हुए। ऐसे में यह विचार भी प्रकाश में आया कि सभी एक ही शक्ति यानी परमपिता ब्रह्म की पूजा करते हैैं। जो निराकार और अनंत तक फैलेे हैं, जो शून्य से भी छोटे अंक में मौजूद हैैंं। अत: धर्म इश्वर वचन यानी सद्कर्मोंं का मात्र संबोधन हैैै।
आप के प्रश्न में कर्म ओर भक्ति दो शब्दों को चिह्नित किया गया है। पर आपको बता दूं कि मीरा, सूरदास, कालीदास, रसखान इत्यादि ने भक्ति को ही कर्म बना लिया था। वास्तव में मानव जीवन में दो ही कर्म है। एक मानव सेवा और दूसरा इश्वर सेवा। और ये दोनों ही मार्ग जीव सेवा को इंगित करते हैं तथा परम सत्य यानी परमपिता पिता को प्राप्त करने की चाहत रखते हैैं।
कर्म का तात्पर्य ही है। धर्म का अर्थ यह कदापि नहीं कि आप पूजा करें। अगरबत्ती दिखाएं। पांच बार घूटने टेक दुआ करें। आखिर ये करने से आपको और आपके जीवमंडल को क्या लाभ। वास्तव में धर्म अपनों की सेवा, जीव-वनस्पति और प्रकृति की रक्षा और प्रेम से है। बड़ों का आदर करना धर्म है। जीवों की रक्षा धर्म है। हर इंसान और जीव-वनस्पति से प्रेम करना धर्म है। सबकी सेवा करना धर्म है। और यही धर्म कानून है। जो स्वयं में एक अनुशासन को जन्म देता हैै और जीवों की सेवा के लिए आपको प्रेरित करता है।
अब इसी कर्म से भक्ति का मार्ग भी प्रसस्त होता है। कर्म में इश्वरीय तत्व की अधिकता ही मानव कल्याण का गोचर हैै और यही भक्ति का स्वरूप भी हैैै। भक्ति वह चीज हैै जो इंंसानों को मानवीय भ्रमों से मुक्ति दिलाता है। जो इसे विज्ञान के करीब पहुंचाता है। जो इसमें जिज्ञासा को जन्म देकर कर्मठ बनाता है। अत: कर्म और भक्ति एक दूसरे के पूरक हैं।
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